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________________ ६० ] [ पट्टावली-पराग ऊपर से लिये गए हैं । २४ तीर्थङ्करों के यक्ष-यक्षिणियों की नामावलि पादलिप्तसूरि की "निर्वाण कलिका " से ली गई है। तीर्थङ्करों की दीक्षा भूमि, निर्वाण भूमि, जन्म-नक्षत्र यादि सैकड़ों बातों का श्वेताम्बरों की "श्रावश्यक निर्युक्ति" से संग्रह किया गया है। यह पद्धति दिगम्बरों में एक सांकेतिक परम्परा सी हो गई है, कि कोई भी अच्छा जैन दिगम्बर विद्वान् कुछ अपनी रचनाएँ अपने पूर्वाचार्यों के नाम से अंकित करके अपने भंडारों में रख दे । " कषाय - पाहुड" की चूरिंग का कर्त्ता कौन था, यह कहना तो कठिन है, परन्तु इस चूरिंग में "स्त्रीवेद" वाला जीव सयोगी केवली पर्यन्त के गुणस्थानों का स्पर्श करने की जो बात कही है, वह श्वेताम्बर मान्य है, इससे इतना तो निश्चित है कि इस चूरिंग का निर्माता श्वेताम्बराचार्य अथवा तो यापनीय सम्प्रदाय को मानने वाला कोई विद्वान् साधु होना चाहिए । यही कारण है कि भट्टारक वीरसेन ने रिंग के कई मन्तव्यों पर अपनी असम्मति प्रकट की है । "श्वेताम्बर" तथा "यापनीय' संघ के अनुयायी सदा से स्त्रीनिर्वाण को मानते आये हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायियों ने विक्रम की दशवीं शती से स्त्रीनिर्वाण का विरोध प्रारम्भ किया था, क्योंकि इसके पूर्वकालीन किसी भी ग्रन्थ में दिगम्बर जैन विद्वान् ने स्त्री- निर्वाण का खण्डन नहीं किया । " तत्वार्थ सूत्र" की " सर्वार्थ सिद्धि " टीका में प्राचार्य देवनन्दी ने "केवली को कवलाहार मानने वालों को सांशयिक मिथ्यात्वी कहा है", परन्तु स्त्री- निर्वाण के विरोध में कुछ भी नहीं लिखा। इसी प्रकार विक्रम की अष्टम शती के प्राचार्य अकलंकदेव ने अपने "सिद्धिविनिश्चय" "न्यायविनिश्चय" आदि ग्रन्थों में छोटी-छोटी बातों की चर्चा की है, परन्तु स्त्रीनिर्वारण के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा । दशवीं शती के यापनीय श्राचार्य की कृति " केवलिभुक्ति स्त्रीमुक्ति" नामक ग्रन्थ में केवली के कवला - हार और स्त्री के निर्वारण का समर्थन किया है और इस समय के बाद के बने हुए दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रत्येक न्याय के ग्रन्थ में स्त्री - निर्वाण का खण्डन किया गया है । इससे प्रमाणित होता है कि मानने वालों में अग्रगामी दशवीं - ग्यारहवीं शती के दिगम्बर स्त्री - निर्वाण न आचार्य थे | Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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