________________
प्रथम-परिच्छेद ]
है। प्राचार्य धरसेन का सत्तासमय विक्रम की तीसरी शताब्दी का अन्तभाग और चौथी का प्रारम्भ भाग था।
श्रुतावतार के लेखानुसार “वीरनिर्वाण से ६८३ के बाद श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्हद्दत्त, अर्हद्वलि मौर माघनन्दो मुनि का क्रमिक समय व्यतीत होने के बाद कर्मप्राभूत के जानकार धरसेन प्राचार्य का अस्तित्व लिखा है। इस क्रम से धरसेन का सत्ता-समय निर्वाण की पाठवीं शती तक पहुँचता है। धरसेन से भूतबलि पुष्पदन्त कर्म-प्राभूत पढ़े थे और उन्होंने उसके माधार से 'षट्खण्डागम" का निर्माण किया है, इस क्रम से भूत बलि, पुष्पदन्त का समय जिन-निरिण की नवम शती तक अर्थात् विक्रम की पंचमी शती के अन्त तक गुणधर प्राचार्य का समय पहुँचता है
और पल्लीवाल गच्छीय प्राकृत-पट्टावली के आधार से भी गुणधर प्राचार्य का समय विक्रम की छठी शती में ही पड़ता है। ___"कषाय-प्राभूत" ऊपर के चूणिसूत्र भी वास्तव में किसी श्वेताम्बर प्राचार्य निर्मित प्राकृत चूरिंग है, जो बाद में शौरसेनी भाषा के संस्कार से दिगम्बरीय चूरिण-सूत्र बना दिए गए हैं । “यतिवृषभ" और "उच्चारणाचार्य" ये दो नाम भट्टारक वीरसेन के कल्पित नाम हैं। "जदिवसह" इत्यादि गाथाएँ भट्टारक श्री वीरसेन ने चूर्षिण के प्रारम्भ में लिखकर "यतिवृषभ" को कर्ता के रूप में खड़ा किया है। वास्तव में चूणिकर्ताओं की चूरिणयों के प्रारम्भ में इस प्रकार का मङ्गलाचरण करने की पद्धति ही नहीं है ।
इसी प्रकार सैद्धान्तिक श्रीमाधनादी और बालचन्द्र ने "तिलोयपण्णत्ति" नामक एक संग्रह ग्रन्थ का सन्दर्भ बनाकर उसे “यतिवृषभ' के नाम चढ़ा दिया है जो वास्तव में १३वीं शती की कृति है और दिगम्बर ग्रन्थों का ही नहीं, विशेषकर श्वेताम्बर ग्रन्थों में से सैकड़ों विषयों का संग्रह करके दिगम्बर जैन साहित्य में एक कृति की वृद्धि की है। इसमें जैन श्वेताम्बर मान्य "आवश्यक नियुक्ति" "बृहत्संग्रहणी" और "प्रवचनसारोद्धार" प्रादि ग्रन्थों को संगृहीत करके इसका कलेवर बढ़ाया गया है। इसमें लिखे गये २४ तीर्थङ्करों के चिह्न (लांछन) "प्रवचनसारोद्धार" के
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org