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कषायप्रामतकार गुराधर आचार्य श्वेताम्बर थे
श्रुतावतार कथाकार इन्द्रनन्दी का कथन बिल्कुल ठीक है कि उसके पास "गुणधर" और "धरसेन" की वंश-परम्परा जानने का कोई साधन नहीं था, क्योंकि उक्त दोनों प्राचार्य श्वेताम्बर परम्परा के अनुयायी श्रुतधर थे। गुणधर निवृति परम्परा के प्राचार्य थे, जो विक्रम की सप्तम शती के प्रारम्भ में होने वाले "कर्मप्राभूत" के जानने वाले विद्वान् थे और "कर्मप्राभूत" के आधार से ही आपने गाथानों में "कषायपाहुड" बनाया था। इन्हीं को परम्परा में होने वाले "गर्षि" आदि प्राचार्यों ने विक्रम की नवमी और दशमी शती के मध्यभाग में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाला "पंचसंग्रह" नामक मौलिक ग्रन्थ बनाया था, जिसके आधार से ग्यारहवीं शती तथा इसके परवर्ती समय में अमितगति, नेमिचन्द्र, पद्मनन्दी
आदि विद्वानों ने संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं में "पंच-संग्रहों" की रचनाएँ की हैं।
इसी प्रकार प्राचार्य धरसेन भी श्वेताम्बर परम्परा के स्थविर थे। इनका विहार बहुधा सौराष्ट्र भूमि में होता था। आप "योनि-प्राभृत" के पूर्ण ज्ञाता थे और “योनि-प्राभूत" नामक श्रुतज्ञान का ग्रन्थ आप ही ने बनाया था, जो आज भी पूना के एक पुस्तकालय में खण्डित अवस्था में उपलब्ध होता है। अधिक संभव है कि प्राचार्य वृद्धवादी, सिद्धसेन दिवाकर मादि प्रखर विद्वान् इन्हीं धरसेन की परम्पराखनि के मूल्यवान रत्न थे, क्योंकि आचार्य "सिद्धसेन दिवाकर" के पास भी "योनिप्राभूत" का विषय पूर्णरूपेण विद्यमान था, ऐसा "निशीथ" चूरिंग के आधार से जाना जाता
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