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यापनीय शिवभति के वंशन थे
हम पहले ही कह पाये हैं कि प्रार्य शिवभूति जिन्होंने कि विक्रम सं० १३८ में नग्नता के व्यवहार को मथुरा के समीपवर्ती "रथवीरपुर" नामक स्थान में फिर प्रचलित किया था और कालान्तर में वे दक्षिणापथ में चले गये थे। दक्षिणापथ-प्रदेश में जाने पर उनकी कदर हुई और कुछ शिष्य भी हुए होंगे, परन्तु व्यवस्थित उनकी परम्परा बताना कठिन है। शिवभूति अथवा तो उनके शिष्यों की उस प्रदेश में “यापनीय" नाम से प्रख्याति हुई थी। कोई-कोई विद्वान् “यापनीय' शब्द का अर्थ निर्वाह करना बताते हैं, जो यथार्थ नहीं है । यापनीय नाम पड़ने का खास कारण उनके गुरुवन्दन में आने वाला "जावणिज्जाए" शब्द है। निर्ग्रन्थ श्रमण अपने बड़ेरों को वन्दन करते समय निम्नलिखित पाठ प्रथम बोलते हैं ।
__ "इच्छामि खमासमरणो ! वंविउं जावरिणज्जाए निसीहिमाए, अणुजागह मे मिउग्गहं निसीहि ।"
अर्थात् 'मैं चाहता हूं, हे पूज्य ! वन्दन करने को, शरीर की शक्ति के अनुसार । इस समय मैं दूसरे कार्यों की तरफ का ध्यान रोकता हूँ। मुझे माज्ञा दीजिए, परिमित स्थान में पाने की।"
उपर्युक्त वन्दनक सूत्र में आने वाले "यापनीय" शब्द के बारम्बार उच्चारण करने के कारण लोगों में उनकी “यापनीय" नाम से प्रख्याति हो गई। लोगों को पूरे सूत्र पाठ की तो आवश्यकता थी नहीं। उसमें जो विशिष्ट शब्द बारम्बार सुना उसी को पकड़ कर श्रमणों का वही नाम रख दिया, ऐसा होना अशक्य भी नहीं है। मारवाड़ के यतियों का इसी
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