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________________ ६२ ] [पट्टावली-पराग प्रकार "मत्थेण" यह नामकरण हुआ है। जब वे एक दूसरे से मिलते हैं अथवा जुदे पड़ते हैं तब “मत्थएण वंदामि" यह शब्द संक्षिप्त वन्दन के रूप में बोला जाता है। इसको बार-बार सुनकर बोलने वालों का नाम ही लोगों ने "मत्थेरण'' रख दिया। यही बात “यापनीय" नामकरण में समझ लेना चाहिए। शिवभूति के अनुयायियों ने यापनीयों के नाम से प्रसिद्ध होने के बाद भी सैकड़ों वर्षों तक श्वेताम्बर मान्य "पागम" सूत्रों को माना । श्वेताम्बरों में और यायनीयों में मुख्य भेद नग्नता और पाणिपात्रत्त्व में था। दूसरी मामूली बातों का भी साम्प्रदायिक भेद रहा होगा, परन्तु सिद्धान्त भेद नाम मात्र का था। जिस प्रकार श्वेताम्बर संघ में वार्षिक पर्व पर "पर्युषणाकल्प" पढ़ा जाता है, वैसे यापनीयों में भी पढ़ा जाता था। श्वेताम्बर- केवली का कब लाहार और स्त्री का निर्वाण मानते थे, उसी प्रकार मापनीय भो मानते थे। आजकल श्वेताम्बर-दिगम्बरों के बीच जितनो मतभेदों की खाई गहरी हुई है, इसका एक शतांश भी उस समय नहीं थी। मानवस्वभावानुसार संयम मार्ग में धीरे-धीरे शिथिलता अवश्य प्रविष्ट होने लगी थी। -श्वेताम्बरों के इस प्रदेश में चैत्यवास की तरह दक्षिण में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय श्रमणों में भी उसी प्रकार की शिथिलता घुम गई थी। उद्यत विहार के स्थान मठपति बनकर एक स्थान में अधिक रहना, राजा आदि को उपदेश देकर मठ मन्दिरों के लिए भूमिदान आदि ग्रहण करना और आय-व्यय का हिसाब ठीक रखना, रखवाना.इस प्रकार की प्रवृत्तियां दक्षिण में भी होने लगी थीं। यह बात उस प्रदेश से प्राप्त होने वाले शिलालेखों तथा शासनपत्रों से जानी जा सकती है। उधर के लेखों में निर्ग्रन्य, श्वेताम्बर, यापनीयों के सम्बन्ध में कुछ विवेचन की अावश्यकता नहीं, परन्तु निम्रन्थ कूर्चकों के सम्बन्ध में दो शब्द लिखने प्रावश्यक हैं। जहां केवल निर्ग्रन्थ शब्द का ही उपादाम है, वहाँ "श्वेताम्बर" और "यापतीय मान्य" सिद्धान्तों को न मानने वाले दिगम्बरों को समझना चाहिए, तब "क्लर्चक'' सम्प्रदाय से उन निर्ग्रन्थ श्रमणों को समझना चाहिए जो वर्ष भर में एक ही बार सांवत्सरिक ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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