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________________ तृतीय-परिच्छेव ] [ २६७ मन्त्र का मोलक धरणेन्द्र को दिया । उसे लेकर वह महाविदेह में गया और श्रीसोमन्वर स्वामी के पास सूरिमन्त्र को शुद्ध करवाया। उसके बाद केवल तीन बार स्मरण करने से सर्व अधिष्ठायक देव प्रत्यक्ष हो गए। गुरु ने पूछा- विमल दण्डनायक हमें पूछता है कि आबु पर्वत पर कोई प्राचीन जैनप्रतिमा है या नहीं ? अधिष्ठायक देवों ने कहा - अर्बुदादेवी के प्रासाद से वामभाग में "प्रबुद" आदिनाथ की प्रतिमा है। अखण्ड अक्षतों के स्वस्तिक पर चउसर पुष्पमाला जहां दीखे - वहां खुदवाना चाहिए । गुरु ने यह देवादेश विमल को कहा, उसने वैसा ही किया और प्रतिमा निकालो। योगी, जंगम प्रादि को बुलाकर विमल ने जिनप्रतिमा दिखाई, उनके मुख निस्तेज हो गए। विमल ने प्रासाद का काम प्रारम्भ किया, तब ब्राह्मण आदि ने कहा - भले हो तुम्हारी यहां मूर्तियां निकलने से तुम यहां मन्दिर बना सकते हो, परन्तु जमीन हमारी है। इसको रुपयों से ढांक कर हमको इसका मूल्य दो और इस पर मन्दिर बनवानो। विमल ने वैसा ही किया । जिनप्रासाद तैयार हो गया, ५२ जिनालय और सुवर्णदण्ड, ध्वज कलशसहित विमल ने प्रासाद तैयार करवाया। इसके निर्माण में १८ करोड़ ५३ लाख द्रव्य लगा। आज भी प्रासाद प्रखण्ड दीख रहा है। इस प्रकार वर्षमानसूरिजी ने तीर्थ प्रकट किया। ऊपर लिखे वृत्तान्त में सूरिमन्त्र सम्बन्धी कहानी हमारी राय में कल्पना मात्र है, क्योंकि वर्धमानसूरिजो के समय में संविनविहारी सुविहित आचार्य न सूरिमन्त्र की प्राराधना करते थे, न पूजा के लिए इसके पट्ट रखने के लिये गोलक (गोल भूङ्गले) रखते थे। यह प्रवृत्ति शिथिलाचारी पार्श्वस्थ प्राचार्यो की थी। प्रबन्ध-लेखक कोई खरतरगच्छीय अर्वाचीन भट्टारक मालूम होते हैं । खरतरगच्छ के लेखक पाबु के मन्दिर - विमल वसहि की प्रतिष्ठा वर्धमानसूरिजी के हाथ से हुई बताते हैं, परन्तु प्रबन्ध में प्रतिष्ठा का सूचन नहीं है। वैसे आबु के विमलवसहिमन्दिर की प्रतिष्ठाएँ बहुधा अनेक प्राचार्यों के हाथों से हुई हैं। मूल मन्दिर की प्रतिष्ठा का वहां कोई लेख नहीं मिलता, परन्तु देहरियों की प्रतिष्ठा सम्बन्धी तथा जीर्णोद्धारों को प्रतिष्ठा सम्बन्धी सैकड़ों लेख मन्दिर में ___Jain Education International 2010_05 For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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