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[ पट्टावली-पराग
धर दिये हैं। न व्याकरण का नियम है, न विभक्तिवचन का। जहां बहुवचन का प्रसंग है वहां एक वचन ही लिख दिया और एक वचन के स्थान बहुवचन । विषयनिरूपण का भी कोई ढंग धड़ा नहीं है, कतिपय विशेष नाम जिस प्रकार उनके समय में प्रचलित थे वैसे ही लिख दिए हैं, जैसे - "पोरवाड़ो" आदि ।
(१) श्री वर्धमानसूरिजी को प्रबन्ध में "अरण्यचारी-गच्छनायक" और उद्योतनसूरि के पट्टधारी लिखा है। उनके कासह्रद गांव में, जो भाबु पहाड़ी की पूर्वीय तलहटी में पाया हुआ है और आजकल "कायन्द्रा" के नाम से प्रसिद्ध है, पाने की बात कही गयी है - उसी कास ह्रद गांव में दण्डनायक विमल देश का राज्य-ग्राह्य-भाग उगाहने के लिए पाता है और श्राबु के ऊपर की रोनक देखकर वहां जिनमन्दिर बनाने की इच्छा करता है, परन्तु अचलेश्वर-दुर्गवासी जोगी, जंगम, तापस, संन्यासी, ब्राह्मण प्रमुख विमल की इच्छा को जान कर सब मिल कर विमल के पास पाते हैं और कहते हैं - 'हे विमल ! यहां पर तुम्हारा तीर्थस्थान नहीं है। यह कुलपरम्परा से आया हुआ हमारा तीर्थ है, तुमको यहां मन्दिर बनाने नहीं देंगे। विमल यह सुनकर निराश होता है और वर्धमानसूरि के पास जाकर पूछता है; भगवन् ! आबु पर अपना कोई तीर्थ-प्राचीनजिनप्रतिमा नहीं है ? सूरिजी ने कहा - छद्मस्थ मनुष्य इसका निर्णय कैसे दे सकते हैं। विमल ने देवताराधना करके इस बात का निर्णय करने के लिए प्रार्थना की। वर्धमानसूरि ने छः मासी तप कर ध्यान किया, तब धरणेन्द्र वहां माया। प्राचार्य ने उसे कहा - हे धरणेन्द्र ! सूरिमन्त्र के चौसठ देवता अधिष्ठायक हैं, उनमें से एक भी नहीं पाया, न मेरे प्रश्न का समाधान किया। इस पर धरणेन्द्र ने कहा - भगवन् ! सूरिमन्त्र का एक प्रक्षर पाप भूल गये हैं, इसलिए अधिष्ठायक देव नहीं पाते । मैं तो तुम्हारे तपोबल से आया हूं। इस पर प्राचार्य ने कहा - हे महाभाग ! पहले तुम मेरे सूरिमन्त्र को शुद्ध कर दो फिर दूसरा कार्य कहूंगा, इस पर धरणेन्द्र ने कहा- भगवन् ! सूरिमन्त्र को शुद्ध करने को मेरी शक्ति नहीं, यह कार्य तीर्थङ्कर के सिवाय नहीं हो सकता। इस पर वर्धमानसूरि ने अपने सूरि
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