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तृतीय-परिच्छेद 1
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उल्लेख किया गया है, जिसका नाम है "द्विवल्लकद्रम्म" अर्थात् "दो वाल भर का चांदी का सिक्का," तीर्थयात्रामों के प्रसंगों में जहां-जहां 'इन्द्र' आदि बनने के चढ़ावे बोले गए हैं, वे सभी इन्हीं द्रम्मों के नाम से बोले गये हैं, एक रुपये के वाल ३२ होते हैं, इस हिसाब से दो वाल रुपया का सोलहवां भाग अर्थात् १ पाना हुअा, इसका अर्थ यह होता है कि विक्रमीय चौदहवीं शती में दक्षिण भारत में दो वाल का चांदी का सिक्का चलता था - जो "द्रम्म" नाम से व्यवहत होता था। "द्रम्म" शब्द का मूल फारसी "दिहम" अथवा उर्दु “दिरम" शब्द प्रतीत होता है, पुराने "द्रम्म" शब्द की मूल प्रकृति “दिरम" साढे तीन वाल का होता था। जिसका प्रचार गुजरात तथा सौराष्ट्र में विक्रम की १२वीं शती में सर्वत्र हो चुका था। दो वाल का द्रम्म उसके बाद सौ डेढ़ सौ वर्षों में प्रचलित हुआ मालूम होता है।
खरतरगच्छीय बृहद्-गुर्वावली के अन्त में "वृद्धाचार्य-प्रबन्धावलि" इस शीर्षक के नीचे कतिपय प्राकृत भाषा के प्रबन्ध दिए गए हैं, जिनकी कुल संख्या १० है। इनमें से अन्तिम दो प्रबन्ध जो "जिनसिंह" और "जिनप्रभसरि" सम्बन्धी है, जिनकी यहां चर्चा अवसर प्राप्त नहीं है, क्योंकि ये दोनों प्राचार्य खरतरगच्छ की मूल परम्परा में नहीं हैं। शेष पाठ प्रबन्ध क्रमशः श्री वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, निनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनेश्वरसूरि को लक्ष्य करके लिखे गए हैं । अतः गुर्वावली के अवलोकन में इन पर ऊहापोह करना अवसर प्राप्त है।
प्रबन्धों में जो कुछ विशेष बातें उपलब्ध होती हैं, उन पर ऊहापोह करने के पहले इनके भाषाविषयक निरूपण और निर्माण समय के सम्बन्ध में विचार करेंगे।
प्रबन्धों का लेखक प्राकृतभाषा का योग्य ज्ञाता नहीं था। भागमसूत्रों में पाने वाले वाक्यों, शब्दों और क्रियापदों को ले लेकर प्रबन्धों का निर्माण किया है - "गामाणुगाम, दूइज्जमाणा", "समोसड्डो", "वयासी", "भो धररिंगदा ! प्राढत्ता" इत्यादि शब्द तथा क्रियापद सूत्रों में से लेकर
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