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________________ २६८ 1 [ पट्टावली-पराग मिलते हैं। श्री वर्धमानसूरिसन्तानीयचक्रेश्वरसूरि प्रादि ने प्रतिष्ठा की, उसके लेख मिलते हैं। चड्डावलि, भारासण, कास ह्रदीय-गच्छ के अनुयायियों द्वारा प्रतिष्टित मूर्तियां इस मन्दिर में मिलती हैं, परन्तु वर्धमानसूरि का नाम तक नहीं मिलता, यह विचारणीय हकीकत है। (२) जिनेश्वरसूरिजी सम्बन्धी दूसरे प्रबन्ध में लिखा है कि वर्धमानसूरि पृथ्वी पर विचरते हुए सिद्धपुर१ गए। वहां सरस्वती नदी में अनेक ब्राह्मण नहाते हैं, वर्धमानसूरि बाहिरभूमि गए थे। सरस्वती में स्नान कर वापिस लौटता हुमा "जग्गा" नामक एक "पुष्करणागोत्रीय" ब्राह्मण उनको सामने मिला। वर्धमानसूरि को देखकर वह जिनमत की निन्दा करता हुमा बोला - ये श्वेताम्बर साधु शूद्र, वेदबाह्य और अपवित्र होते हैं, यह सुनकर प्राचार्य ने कहा - हे ब्राह्मण ! बाह्य स्नान से शरीर की शुद्धि नहीं होती, क्योंकि तेरे सिर पर मृत कलेवर है। इनके प्रापस में विवाद छिड़ गया। जग्गा ने कहा – “यदि मेरे सिर में से मृतक निकल जाय तो मैं तुम्हारा शिष्य बन जाऊंगा अन्यथा तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा" । गुरु ने इस बात को मंजूर किया । तब जग्गा ने क्रोध से सिर पर के वस्त्र को दूर फेंका तब क्या देखता है कि भीतर से मरा हुमा एक मत्स्य गिरा। जग्गा शर्त में हार गया और उनका शिष्य बन गया। दीक्षा लेकर सिद्धान्त का अध्ययन कर तैयार हुआ। गुरु ने योग्य जान कर अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया, "जिनेश्वरसूरि" ऐसा नाम दिया। वर्धमानसूरि अनशन करके परलोकवासी हुए, तब जिनेश्वरसूरि गच्छनायक बनकर विचरते हुए प्रणहिल पट्टन पहुंचे। वहां उन्होंने चौरासी गच्छों के भट्टारकों को देखा। सब द्रव्यलिंगी चैत्यवासी मठपति थे। जिनेश्वरसूरि ने शासन की उन्नति के लिए श्रीदुर्लभराज की सभा में उनसे वाद किया। सं० १०२४ में वे सब प्राचार्य हारे और जिनेश्वरसूरि जीते। राजा ने खुश होकर उनको "खरतर" ऐसा बिरुद दिया, तब से "खरतर-गच्छ" हुमा। इस प्रबन्ध में कितनी सत्यता है, यह कहना कठिन है, क्योंकि पहले तो पुष्करण नामक कोई गोत्र ही नहीं होता था, तब ब्राह्मण जग्गा १. मूल में "सीधपुर" है। - - ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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