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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २६९ का पुष्करण गोत्र कहां से आया ? होगा, "पुष्कर नामक झील खोदने के कारण पुष्करण नाम पड़ा है", इसलिये उसको जाति कह सकते हैं, गोत्र नहीं। आज तक सिद्धपुर में औदीच्य, सारस्वत, नागर जाति के ब्राह्मण छात्र मिलते हैं, परन्तु पुष्करणों का वहां कोई नाम तक नहीं जानता। इससे ज्ञात होता है कि उपर्युक्त जिनेश्वरसूरि की दीक्षा की कहानी प्रबन्ध-लेखक ने कल्पनाबल से गढ़ ली है। अन्य खरतरगच्छीय पट्टावलियों में जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरसूरि को बनारस निवासी श्रोत्रिय ब्राह्मण लिखा है, इससे भी ऊपर की कह नी कल्पना मात्र ही ठहरती है । पाटन में दुर्लभ राजा की सभा में चैत्यवासियों को हराकर "खरतर" पद प्राप्त करने की बात भी प्रमाणिकता नहीं रखती, क्योंकि एक तो १०२४ में वहां दुर्लभराज का राज्य ही नहीं था। तब राजा ने खुश होकर "खरतर" विरुद दिया यह बात निराधार ठहरती है । "खरतर" यह शब्द सर्वप्रथम जिनदत्तसूरि के नाम के साथ प्रयुक्त हुआ था जो धीरे-धीरे लग-भग २०० वर्षों के बाद गच्छ के साथ मिल गया है, जिनेश्वरसूरि के समय में इस नाम को कोई जानता तक नहीं था, खरतरगच्छ की गुर्वावली आदि में वर्धमानसूरिजी का पाबु पर स्वर्गवासी होना लिखा है, तब प्रबन्धलेखक ने स्वर्गवास स्थान के रूप में, पाबु का नाम-निर्देश नहीं किया, इससे भी स्पष्ट होता है कि प्रबन्धलेखक भट्टारक नै केवल दन्त-कथाओं के प्राधार से ही प्रस्तुत प्रबन्ध लिख डाला है। (३) तीसरे प्रबन्ध में जिनेश्वरसूरि के पट्टवर षट्विकृति त्यागी जिनचन्द्रसूरि को बताया है और उनके पट्टधर अभयदेवसूरि को। लेखक का यह मत भी ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जिनचन्द्रसूरि को षष्टि कृतियों का त्यागी कहीं नहीं बताया और न अभयदेवसूरि के सम्बन्ध में शासनदेवी से कहलाया है कि खंभात नगर के बाहर सेढ़ी नामक नदी है उसके निकट खरपलाश के नोचे पार्श्वनाथ की प्रतिमा है, वहां जाकर स्तुति करो,' इस लेख से तो यही मालूम होता है कि विचारे प्रबन्धलेखक को 'खंभात" ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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