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[ पट्टावली-पराग
तथा "स्तम्भनक" इन दो नामों के बीच का भेद तक मालूम नहीं, उन्हें पहले यह समझ लेना चाहिए था कि सेढो नदी "खंभात' के बाहर नहीं, किन्तु "स्तम्भनक ग्राम" के बाहर है, जिसे आजकल :"थांभणा'' के नाम से पहिचानते हैं । "खंभाइति'' इस नाम के उल्लेख से तो मालूम होता है कि लेखक सत्रहवीं शती के परवर्ती होने चाहिए। लेखक ने "पलाश" के साथ "खर" शब्द विशेषण के रूप से लगाया है, यह भी निरर्थक है, क्योंकि "पलाश" अपने नाम से ही पहिचाना जाता है, "खरपलाश" कोई वृक्ष ही नहीं होला । वर्तमान काल में लोग इसको “खाखरा" इस नाम से ही पहिचानते हैं। प्रबन्धलेखक ने “खाखर" शब्द की पूछपलाश से जोड़कर अपना निकटवर्ती समय ही सूचित किया है। प्रबन्ध-लेखकजी "जयतिहुअण." स्तव के सम्बन्ध में लिखते हैं - "जयतिहुणस्स दो वित्तं भंडारियं, संपई तिसं वित्तं वट्टइ' इस वाक्य से प्रबन्ध-लेखक ने अपने प्राकृत भाषा सम्बन्धी ज्ञान का भी परिचय दे दिया है। "दो वित्तं भंडारिय' के स्थान में ('दुण्णि वित्ताणि भंडारियारिण") ऐसा चाहिए। तिसं (तीसं) वित्तं (वित्तारिण) वट्टइ (वट्टति) ऐसा लिखना चाहिए था। अन्त में प्रवन्धलेखक कहते हैं - "आजकल खरतरगच्छ में “जयतिहुप्रण." नमस्कार बिना प्रतिक्रमण करने नहीं पाते। इस प्रकार की गच्छ-सामाचारी गुरुसम्प्रदाय है। इस अन्तिम कथन से प्रबन्ध कितना अर्वाचीन है, इस बात को पाठक स्वयं समझ सकते हैं ।
(४) चौथे प्रबन्ध में लेखक ने जिनवल्लभसूरि का वृत्तान्त लिखा है। लेखक कहते हैं - मालव देश की उज्जयनी नगरी में कच्चोलाचार्य चैत्यवासी रहता था। उसके जिनवल्लभ नामक शिष्य था। वह संसार से विरक्तचित्त और संवेगभावी था। एक समय उसने एकान्त में एक पुस्तक खोला, उसमें से गाथा निकली-"असणे देवदव्वस्स परत्थीगमणे तहा०" इत्यादि । इस गाथा का अर्थ विचारता हुमा जिनवल्लभ वहां से निकल कर प्रणहिलपुर पाटन गया। वहां चौरासी पौषधशालानों में चौरासी गच्छों के भट्टारक रहते थे। जिनवल्लभ प्रत्येक पौषधशाला में गया। पूछा, देखा, परन्तु कहीं भी उसे सन्तोष नहीं हुआ । अन्त में अभयदेवसूरिजी
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