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तृतीय-परिच्छेद ]
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की पौषधशाला में गया, सुविहित प्राचार्य को देखा और उनके पास दोक्षा ग्रहण की। गुरु ने उसे योगोद्वहन करवा के गीतार्थ बनाया। सर्वसंघ को प्रार्थना के वश ११६७ के वर्ष में अभयदेवसूरि ने उसे सूरिमन्त्र दिया और "जिनवल्लभसूरि" यह नाम दिया। बिधिपक्ष का स्थापन करते हुए, सुविहित जिनवल्लभसूरि मेवाड़ के चित्रकूट दुर्ग में पहुँचे। वहां मिथ्यात्वी लोग बहुत बसते थे। कोई जैनधर्म को स्वीकार नहीं करता, तब जिनवल्लभसूरि चामुण्डादेवी के मन्दिर में टहरे । रात्रि के समय चामुण्डा आई, मन्दिर कांपने लगा । जिनवल्लभ ने सूरिमन्त्र के बल से देवी को कीलित कर वश किया। देवी ने आचार्य से कहा - मेरे नाम से अपना गच्छ चलानो, मैं तुम्हें सहायता करूंगी। गुरु ने वैसा ही किया, सर्व लोगों को प्रतिबोध देकर सम्यत्व प्रदान किया।
जिनवल्लभसूरि ने एक साधारण श्रावक को दस करोड़ द्रव्य का परिग्रह करवा के उसे करोड़पति बनाया। उसने चित्रकूट नगर में जैनप्रासाद बनाया, शत्रुजय का संघ निकाला। जिनवल्लभसूरि ने वागड़ प्रदेश में श्रीमालों को प्रतिबोध देकर दस हजार घर जैन बनाए और "पिण्ड-विशुद्धि-प्रकरण' की रचना की।
जिनवल्लभसूरि के प्रबन्ध में लेखक ने अनेक ऐसी बातें लिखी हैं, जो खरतरगच्छ की मान्यता से ही नहीं, इतिहास से भी विरुद्ध हैं जिनको इन्होंने कच्चोलाचार्य लिखा है उनका खरा नाम 'कूर्चपुरीय जिनेश्वरसूरि" था और वे आशिका नगरी में भी रहते थे। प्राशिका और "कूर्चपुर" जो आजकल "कुचेरा" इस नाम से प्रसिद्ध है, ये दोनों मारवाड़ के अन्तर्गत हैं, न कि मालवा में ।
जिनवल्लभ ने जिस पुस्तक को खोला था और उसमें से "असणे देवदव्वस्स" इत्यादि गाथा निकलने का लिखा है, प्रथम तो यह गाथा ही प्रशुद्ध है, दूसरा खरतरगच्छ की पट्टावलियों में “दशवकालिक सूत्र" का पुस्तक खोला ऐसा लिखा है, परन्तु ऊपर उल्लिखित गाथा न दशवैकालिक की है, न किसी अन्य सूत्र की, यह गाथा मनघढन्त है, जो कहीं से उठाकर इसमें रख दी है।
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