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[ पट्टावली-पराग
प्रबन्धकार के कथनानुसार जिनवल्लभ स्वयं निकल कर पाटन पहुंचे थे, तब अन्य सभी लेखकों ने जिनवल्लभ को गुरु ने जैनसूत्र पढ़ने के लिए 'अणहिलपुर भेजा था ऐसा लिखा है।" जिनवल्लभ पाटन में सभी पौषधशालाओं में फिर-फिराकर अन्त में अभयदेवसरि की पौषधशाला में गये, ऐसा प्रबन्धकार कहते हैं, जो कल्पना मात्र है। क्योंकि न तो अभयदेवसूरि को कोई. पौषधशाला थी और न वे किसी पौषधशाला में उतरते थे । अभयदेव, इनके गुरु और शिष्य परिवार सभी वसतिवासी थे और गृहस्थों के खाली मकानों में ठहरते थे।
अभयदेवसूरि के समीप जिनवल्लभ के दीक्षा लेने तथा अभयदेव द्वारा उन्हें सूरिमन्त्र देने आदि की बातें कल्पित हैं। जिनवल्लभ ने अभयदेवसूरि के पास ज्ञानार्थ उपसम्पदा लेकर उनसे सिद्धान्त पढ़ा था, ऐसा जिनवल्लभ स्वयं कहते हैं। प्राचार्य अभयदेवसूरि संवत् ११३५ में स्वर्गवासी हो चुके थे, तब ११६७ में जिनवल्लभ को सूरिमन्त्र देने कहां से आये, इस बात का प्रबन्ध-लेखक को विचार करना चाहिए था।
जिनवल्लभ चित्रकूट गये थे, उस समय वहां के लोग बहुधा मिथ्यात्वी थे, प्रबन्धकार का यह लिखना भी असत्य है। उस समय भी चित्तौड़ में जैन धर्म का प्राचुर्य था। जैन मन्दिर, पौषधशालाएँ आदि सब-कुछ था । जिनवल्लभ को कहीं भी ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला, इसका कारण था उनके पाटण में संघबहिष्कृत होने की बात । पाटन में जिनवल्लभ गरिण संघ बहिष्कृत होकर चित्तौड़ गए थे, तब उनके वहां पहुँचने के पहल ही पाटन के समाचार वहां पहुंच चुके थे, जिससे उनको चण्डिका के मन्दिर में उतरना पड़ा था। चामुण्डा देवी के यह कहने पर कि "तुम मेरे नाम से अपना गच्छ चलायो" इत्यादि बात में सत्यांश क्या है, यह कहना तो कठिन है, परन्तु अंचलगच्छ के "शतपदी" आदि ग्रन्थों में जिनवल्लभ के अनुयायियों की परम्परा को :'चामुण्डिक-गच्छ” के नाम से उल्लिखित किया है, इससे इतना तो कह सकते हैं कि गच्छान्तरीय लोग जिनवल्लभ गरिण को "चामुण्डिक" कहा करते होंगे ।
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