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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २७३ प्रबन्ध में साधारण श्रावक को जिनवल्लभसूरि ने "दस करोड़" द्रव्य परिमारण परिग्रह कराने का लिखा है, तब खरतर पट्टावलियों में उसी साधारण श्रावक को "एक लाख'' का परिग्रह परिमाण करने की बात कही है। खरतरगच्छ के लेखक अपनी मान्यता में एक दूसरे से कितने दूर पहुँच जाते हैं, इस बात में ऊपर का कथन एक उदाहरण माना जा सकता है। (५) पांचवां प्रबन्ध श्री जिनदत्तसूरि के सम्बन्ध में लिखा गया है। प्रबन्धकार लिखते हैं - जिनदत्तसूरिजी अणहिलपुर में विचरे। वहां के श्री नागदेव श्रावक को युगप्रधान के सम्बन्ध में संशय था, क्योंकि सभी साधु अपने-अपने गच्छ के प्राचार्य को युगप्रधान कहते थे। नागदेव ने गिरनार पर्वत के अम्बिका-शिखर पर जाकर अट्ठम का तप किया, अम्बिका प्रत्यक्ष हुई और उसके हाथ में अक्षर लिखे और कहा - तेरे मन में युगप्रधान विषयक संशय है, तू अणहिलपुर जाकर सभी पौषधशाला-स्थित प्राचायों को अपना हाथ दिखाना । जो तुम्हारे हाथ में लिखे अक्षरों को पढ़े उसे युगप्रधान जान लेना । नागदेव ने जाकर सभी पौषधशाला-स्थित प्राचार्यों को अपना हाथ दिखाया। किसी ने उसके हाथ के अक्षर नहीं पढ़े, तब वह खरतरगच्छाधिपति जिनदत्तसूरि की पौषधशाला में गया। प्राचार्य को वन्दन किया, सूरि ने उसका हाथ देख कर मौन किया और हाथ पर वासक्षेप किया और अपने शिष्यों को अक्षर पढ़ने का आदेश दिया। शिष्य ने निम्न प्रकार से अक्षर पढ़े - 'दासानुदासा इव सर्वदेवा, यदीयपादान्जतले लुठन्ति । मरुस्थलीकल्पतरुः स जीयाद्, युगप्रधानो जिनदत्तसूरि. ॥१॥" उपर्युक्त श्लोक सुनकर नागदेव निःसंशय हो गया, तीन प्रदक्षिणा पूर्वक उसने प्राचार्य को वन्दन किया। एक बार जिनदत्तसूरि प्रजमेर की तरफ विचरे। वहां चौसठ योगिनियों का पीठ था। योगिनियों ने सोचा - जिनदत्तसूरि यहां रहेंगे तो हमारा पूजा-सत्कार न होगा। इसलिए वे श्राविकाओं के रूप बनाकर प्राचार्य के व्याख्यान में आयीं। देवियों का अभिप्राय प्राचार्य को छलने ___Jain Education International 2010_05 For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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