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[ पट्टावली-पराग
का था, परन्तु प्राचार्य ने सूरिमन्त्र के अधिष्ठायक द्वारा उन्हें कीलित करवा दिया। वे उठ न सकीं, तब दयावश होकर प्राचार्य ने उन्हें छोड़ा भोर आचार्य तथा देवियों के आपस में पणबन्ध हुआ, देवियों ने कहा " जहां हम हैं वहां तुम न आओ, हमारे साढ़े तीन पीठ हैं, एक उज्जैनी में, दूसरा दिल्ली में तीसरा अजमेर में और आधा भरोंच में । हे भट्टारक ! तुम अथवा जो भी तुम्हारा शिष्य तुम्हारे पट्ट पर बैठे, वह हमारे उक्त पीठों में विहार न करे। अगर बिहार करेगा तो वधबन्धादिक के कष्ट पाएगा, जैसे जिनहंससूरि ने पाए । जिनदत्तसूरि ने योगिनियों का कथन स्वीकार किया ।
योगिनियों की शर्तें स्वीकार करने के बाद सिन्ध प्रदेश में विहार किया। वहां एक लाख अस्सी हजार प्रोसवालों के घर जैनधर्मी बनाए । उस नगर में परकायाप्रवेश विद्या से जिनमन्दिर में से मरे हुए ब्राह्मण को सजीव कर नारायण के मन्दिर में रखा । ब्राह्मणों की प्रार्थना और हाथाजोड़ी से फिर उसे सजीव कर श्मशानभूमि में छोड़ा ।
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सिन्ध से विहार करते हुए पंचनद के संगमस्थान पर पहुंचे श्रौर वहां सोमर नामक यक्ष को प्रतिबोध दिहा ।
जिनवल्लभसूरि के स्वर्गगमन के समय गच्छ के आठ प्राचार्य थे, जिन मैं से एक पूर्वदिशा में रुदोली नगर में जिनशेखर नामक भट्टारक थे, जो रुद्रपल्ली - गच्छ के अधिपति हुए । शेष सात प्राचार्यों ने जालोर नगर में मिलकर सलाह की कि समग्र संघ तथा गच्छ की अनुमति लेकर जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर दूसरा प्राचार्य प्रतिष्ठत करेंगे। उस समय दक्षिण देश में देवगिरि नगर में जिनदत्तगरिण चातुर्मास्य ठहरे हुए थे, उनको प्रभावशाली गीतार्थं जानकर संघ ने बुलाया, संघ की प्रार्थना से जिनदत्तगरिण माने के लिए रवाना हो गये, जब वे उज्जैनी में श्राये, उस समय जिनवल्लभ के पूर्वगुरु कच्चीलाचार्य की मृत्यु का समय निकट भा चुका था, कच्चीलाचार्य ने जिनदत्तगरि के पास श्राराधना की और शुभध्यान से मरकर कच्चोलाचार्य सौधर्मकल्प में देव हुए । जिनदत्तगरि भागे चले । जिहरणी नामक
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