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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २७५ नगर के उद्यान में एक शून्य देवालय में ठहरे। प्रतिक्रमण के समय कच्चोलाचार्य देव उनके समीप आया और अपना परिचय देकर जिनदत्तगणि को उसने सात वर दिए, जैसे-तुम्हारे संघ में एक श्रावक महद्धिक होगा? तुम्हारे गच्छ में साध्वी को ऋतुपुष्प न होगा २, तुम्हारे नाम से बिजली न गिरेगी ३, तुम्हारे नाम से प्रांधी और धूल के बवण्डर टल जायेंगे ४, अग्निस्तम्भ होगा ५, सैन्य तथा जलस्तम्भ होगा ६, सांप का जहर हानि करने को समर्थ न होगा ६, इसके अतिरिक्त देव ने कहा - पट्टस्थापना के जो दो मुहर्त निर्धारित हुए हैं, उनमें से प्रथम मुहर्त में पट्ट पर मत बैठना, क्योंकि वह अल्पायु:कारक है । दूसरे मुहूर्त में बैठने से युगप्रधान जिनशासन का प्रभावक होगा । तेरे गच्छ में एक हजार साधु और ७०० साध्वियों का परिवार होगा, इतनी बातें कहकर देव अदृष्ट हो गया; जालोर नगर में जिनदत्तगणि ११६९ के वर्ष में पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए, अजमेर में प्रतिक्रमण में उद्योत करती हुई बिजली को स्तंभन कर दिया । प्रबन्धलेखक ने जिनदत्तसूरि के सम्बन्ध में जो कुछ विशिष्ट चमत्कार पूर्ण बातें लिखी हैं वे सब लेखक के फलद्रप भेजे में से निकली हुई हैं। न अम्बिका ने नागदेव के हाथ पर अक्षर लिखे न जिनदत्तसूरि के शिष्य ने "दासानुदासाः" इत्यादि श्लोक पढ़ा। चौसठ योगिनियों की बात तो इससे भी भद्दी हैं, जिनदत्त जैसे शुद्ध धर्म को लगन वाले विद्वान् प्राचार्य के पवित्र जीवन में ये बातें कलंक रूप हैं, भले ही अन्धश्रद्धालु अज्ञानी भक्त इन बातों को पढ़कर खुश हों और जिनदत्त के नाम की माला फेरते रहें, इससे जिनदत्तसूरि का अथवा उनकी माला फेरने वाले भक्तों का भला होने की प्राशा नहीं रखना चाहिए। प्रबन्धलेखक जिनदत्तसूरि के मुंह से योगिनियों का वचन "तहत्ति" कराता है, अभयदेवसूरि और जिनदत्तसूरि को पाटन की पौषधशाला में रहने वाला कहने वाला वचन, जिनवल्लभसूरि का स्वर्गवास होने के वर्ष में गच्छ में आठ प्राचार्य बताता है। जिनदत्त का प्राचार्य होने के पहले का नाम 'सोमचन्द्र' था परन्तु लेखक प्रारंभ से ही इनका "जिनदत्तगणि" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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