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________________ ५८ [ पट्टावली-पराग - - "वरकरणग तविय चंपग-विमलयर कमलगम्भसरिवन्ने । भविप्रजरपहिययदइए, दयागुण विसारए धीरे ॥ ३७॥ अड्डभरहप्पहारणे, बहुविह सज्झाय सुमुरिणय पहाणे । अणुभोगियवरवसभे, नाइलकुलवंशनंदिकरे ॥ ३८ ॥ भूयहिनप्पगम्भे, धंदेऽहं भूयविनमायरिए । भवभयवुच्छेयकरे, सोसे नागज्जुगरिसोरणं ॥ ३९ ॥" अर्थ : 'अग्नितप्त श्रेष्ठ सुवर्णतुल्य, चम्पकपुष्पसदृश, कमलपुष्प के गर्भसदृश वर्ण वाले, भाविक जनों के हृदयप्रिय, दयागुण में विशारद, धैर्यवन्त, दक्षिणार्धभरत में प्रधान, अनेकविध स्वाध्याय से यथार्थज्ञाततत्त्व, पुरुषों में प्रधान, अनुयोगधर पुरुषों में श्रेष्ठ, नागिल कुल की परम्परा के वृद्धिकारक, प्राणियों का हित करने में दक्ष, संसार के भय का नाश करने घाले ऐसे नागार्जुन ऋषि के शिष्य प्राचार्य भूतदिन को वन्दन करता है। ।३७।३८३६॥ "सुमुरिणयनिच्चाऽनिच्चं, सुमुरिणयसुत्तस्थधारयं वंदे । सम्भावुझ्भावरणया - तत्थं लोहिच्चरणामाणं ॥४०॥ प्रत्थमहत्थक्खारिण, सुसमरणवक्खारण-कहणनिव्वारिंण । पयईइ महुरधारिण, पयत्रो पणमामि दूसरण ॥४१॥ सुकुमालकोमलतले, सेसि परणमामि लक्खरणपसत्थे । पाए पावयणीणं, पडिच्छ (ग) सहि परिणवइए ॥४२॥" प्रथं । 'जिन्होंने पदार्थों की नित्यानित्य अवस्था को अच्छी तरह जाना है, जो यथार्थसूत्र अर्थ के धारक हैं और जो सद्भावों के प्रकाशन मैं यथार्थ हैं, ऐसे "लोहित्य" नामक अनुयोगधर को वन्दन करता हूँ। पदार्थों के पर्थविस्तार की जो खान हैं, उत्तम श्रमणों को सूत्रों की ध्याख्या द्वारा निर्वृतिदायक हैं और प्रकृति से मधुरभाषी हैं, ऐसे दुष्यगरिण को प्रयत्नपूर्वक नमन करता हूँ। जिन प्रावचनिक दूष्यगरिण के चरण सुकुमाल भोर कोमल तल बाले तथा शुभ लक्षणों से प्रशस्त हैं और जो ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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