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प्रथम-परिच्छेव ]
तेजस्वी और द्राक्षा तथा नीलकमल के समान कान्ति काले ऐसे रेवतिनक्षत्र अर्थात् रेवतिमित्र नामक प्राचार्य का वाचकवंश वृद्धि को प्राप्त हो। ।२६३०॥३१॥
"प्रयलपुरा रिपक्वते, कालियसुयप्राणुप्रोगिए धोर। बंभद्दोषगसोहे, वायगपयमुत्तमं पत्ते ॥ ३२॥ जेसि इमो प्रमुअोगो, पयरइ अज्जावि अङ्कभरहम्मि। बहनयरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ॥ ३३ ॥ ततो हिमवन्तमहन्त-विक्कमे घिइपरक्कममरणंते । सम्झाय मगंतबरे, हिमक्ते वंदिमो सिरसा ॥३४॥"
अर्थ: 'प्रचलपुर से निकल कर प्रवजित होने वाले, कालिक श्रुत के अनुयोगधर, धीर और उत्तम वाचक पद को प्राप्त ब्रह्मद्वीपिकसिंह स्थविर को धन्दन करता हूँ। जिनका यह अनुयोग आज भी इस प्रर्द्ध भरतक्षेत्र में प्रचलित है पौर अनेक नगरों में जिनका यश फैल रहा है, उन श्री स्कन्दिल चार्य को वन्दन करता हूँ। स्कन्दिल के बाद हिमवन्त के समान महाविक्रमशाली अमर्यादित-धृतिपराक्रम वाले पौर अपरिमित स्वाध्याय के धारक प्राचार्य हिमवन्त को सिर नवां कर वन्दन करते हैं। 1३२॥३३॥३४॥
"कालियसुयअणुप्रोगस्स, धारए धारए य पुवारणं । हिमवंसखमासमणे, बंदे गागज्जुणायरिए ॥ ३५॥ मिउमट्यसंपन्न, पशुपुलिंब धायगत्तणं पत्ते ।
मोहसुयसमायारे, नागज्जुरणवायए पं ॥ ३६॥" अर्थ : 'कालिक श्रुतानुयोग के और पूर्वो के धारक हिमवन्तः क्षमाश्रमण को वन्दन करता हूँ। जो मृदुमार्दव से सम्पन्न, उत्सर्गश्रुतानुसार चलने वाले तथा अनुक्रम से वाचक-पद. पाने वाले हैं, उन नागार्जुन वाचक को वन्दन करता हूँ।३।३६॥
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