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________________ ५६ ] [ पट्टावली-पराग और गौतम गोत्रीय स्थूलभद्र को वन्दन करता हूं । ऐलापत्यगोत्रीय महागिरि ( वासिष्ठ गोत्रीय ) सुहस्ती और कौशिकगोत्रीय बहुल के समवयस्क बलिस्सह को वन्दन करता हूं | २३ २४ २५॥ "हारियगुत्तं साइं च बंदे कोसियगोत्तं बंदिमो हारियं च सामज्जं । संडिल्लं श्रज्जजीयधरं ॥२६॥ तिसमुद्दखाकिति, दीवस मुद्देसु गहियपेयालं । वंदे प्रज्जस मुद्दे, प्रक्खुभिय-समुद्द-गंभीरं ॥२७॥ भरणगं करगं भरगं, पभावगं गारण- दंसरण- गुरणारणं । बंदामि श्रज्जमंगुं सुयसागरपारगं घीरं ॥२८॥" ' हारितगोत्रीय स्वाति और श्यामार्य को वन्दन करते हैं। कौशिकगोत्रीय भार्यं जीसधर शाण्डिल्य को वन्दन करता हूं। तीन समुद्रपर्यन्त जिनकी कीर्ति प्रसिद्ध है और द्वीप समुद्र सम्बन्धी ज्ञान में जो गहरे उतरे हुए हैं ऐसे प्रक्षुब्ध समुद्र के जैसे गम्भीर प्रार्य समुद्र को वन्दन करता हूँ । प्रतीच्छकों को सूत्रों का पाठ देने वाले, शास्त्रोक्त क्रियामार्ग में प्रवृत्तिमान् ज्ञान-दर्शन के गुणों को शोभाने वाले और श्रुत-समुद्र के पारंगत धीर पुरुष श्रार्य मंगू को वन्दन करता हूँ । २६ । २७|२८|' "नारणम्मि दंसम्मिश्र, तव विरणए रिगच्चकाल मुज्जुतं । अज्जं नन्दिलखमरणं, सिरसा वन्दे, पसन्नमरणं ॥२६॥ बडुउ वायगवंसो, जसवंसो अज्जनागहत्थीगं । वागररणकरण - भांगिय कम्मपयडीपहारणारणं ॥ ३० ॥ जच्चंजरणघाउ - सम-प्पहारण वडूज अर्थ : 'ज्ञान, दर्शन तथा तप विनय में नित्यकाल उद्यमवन्त और प्रसन्नचित्त आर्य नन्दिल क्षपक को सिर नवां कर वन्दन करता हूँ । व्याकरण, चरण-करण, भंगिकसूत्र भौर कर्मप्रकृति में प्रधान ऐसे आर्य नागहस्ती का यशस्वी वाचक वंश वृद्धिंगत हो, जात्य भंजनधातु के समान मुद्दियकुवलय निहाणं 1 वायगवंसो, रेवनक्खत्तनामारणं ॥ ३१ ॥ " Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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