SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२] [ पडावली-पराग कहीं, जिनको सुनकर श्री राजविजयसूरिजी भी मालवे में जाने के लिये तैयार हुए। लगभग ७०० यतियों के साथ मालवा की तरफ विहार किया, स्थान-स्थान पर दिगम्बरीय सम्प्रदाय की बातों का खण्डन करते हुए और पीछे साधुओं को छोड़ते हुए, लगभग ३०० साधुओं के साथ उज्जैन पहुंचे। चमूपाल ताराचंद को खबर मिलने पर वह राजा के पास गया और कहा - हमारे गुरु आये हैं, उनको नगर-प्रवेश उत्सव के साथ कराना है, परन्तु यहां के वरिणक तो हमको साथ नहीं दगे। महरबानी करके माप पधार कर हमारे कार्य को पार करवाइयेगा। मन्त्री की बात सुनकर राजा ने अपनी तरफ से प्राचार्य महाराज का प्रवेश उत्सव करने का प्रबन्ध करवाया। हाथी, घोड़े, रथ सभी प्रकार के सामान से बड़े ठाट के साथ नगर-प्रवेश करवाया । दिगम्बर भट्टारक जीप्राजो ने जाना कि कोई पराक्रमी पुरुष है, इसो से राजा भी इनकी पेशवाई में सहकार कर रहा है। पग्लिक रास्ते पर भट्टारक जोपाजी की पौषधशाला पड़ती है, मिनट दो मिनट के लिये बाजे बन्द रहे, इस पर राजा ने बाजे न बन्द करने की प्राज्ञा दो और जुलूस प्रागे बढ़ा। नगर के खास रास्तों में होता हुआ, जुलूस राजा की हाथीशाला में उतरा। भट्टारक जीमाजी के मन पर इस धूमधाम का ऐसा प्रभाव पड़ा कि प्राचार्य के साथ सभा समक्ष विवाद कर इनको जीतना आसान नहीं है, यह सोच कर भट्टारकजी ने एक फूट पद्य बनाकर अपने पण्डित द्वारा राजविजयसूरिजी के पास पहुंचाया और कहलाया कि इस पद्य का अर्थ समझ सको तब तो हमारे साथ विवाद करने के लिये तैयार होना, अन्यथा पाये वैसे ही चले जाना। पद्य वाली चिट्ठी सब साधुनों ने पढ़ी परन्तु किसी को पद्य का अर्थ नहीं सूझा । पद्य वाला पत्र अपने पास मंगा कर राजविजयसूरिजी ने भट्टारक के पण्डित को कहा - सात दिन के भीतर इसका उत्तर दे देंगे। पण्डित चला गया, राजविजयसूरि ने उस श्लोक पर ध्यान लगा कर अर्थ-विचार किया, परन्तु कुछ पता नहीं लगा। एक बार तो वह निराश हो गए, परन्तु अन्त में उस पद्य का भेद उन्हें मिल गया, अपने ही एक सैद्धान्तिक अन्य के पद्यों के प्रथमाक्षरों को लेकर वह पद्य बनाया गया था। आचार्य ने उसका अर्थ निश्चय कर लिया। सातवें दिन पंडित ने माकर उस र लिया कर वह पञ्च बनअपने ही एक सही ___Jain Education International 2010_05 For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy