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द्वितीय-परिच्छेद ]
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उस समय उज्जैन में एक दिगम्बर भट्टारक रहता था। उसने मालव देश में तपा श्रावकों को दिगम्बर मत में खींच लिया था। उज्जनी का एक धनवन्त तपगच्छ का श्रावक जिसका नाम चमूपाल मन्त्री ताराचंद मोतीचंद था, उसने भट्टारक की बात नहीं मानी, इसलिये उसका न्यातिव्यवहार भट्टारक ने बन्द करवा दिया। श्रावक का भट्टा'कजी को कहना था कि मेरे गुरु गुजरात में विचरते हैं, उनको जीतो तो मैं तुम्हारा श्रावक बन जाऊं । भट्टारकजी ने कहा - तुम्हारे गुरु को यहां बुलायो । श्रावक ने कहा - मेरे वास्ते वे नहीं पायेंगे, मैं सिद्धाचल का संघ निकालू सो प्राप संघ के साथ चलें । मेरे गुरु भी प्राजकल शत्रुञ्जय की यात्रार्थ गये हुए हैं, इसलिये आप कहो तो संघ निकालू, तब भट्टारक ने स्वीकार किया । शा० ताराचन्द्र चमूपाल मन्त्री श्री शत्रुक्षय का संघ निकाल कर शत्रुञ्जय प्राया पोर पहाड़ पर संघ चढ़ रहा है, वहां विजयदानसूरिजी को नीचे उतरते हुए देखा। शा० ताराचंद मन्त्री ने उनको वंदन किया, तब . जीवाजी भट्टारक ने पूछा - क्यों ताराचन्द्र, यही तेरे गुरु हैं ? ताराचन्द्र ने कहा - यही मेरे गुरु हैं, तब जोगाजी भट्टारक उनके पास जाकर विजयदानसूरि से विवाद करने लगा । युक्तिप्रयुक्ति करते हुए, एक प्रहर बीत गया । पूज्य प्राचार्य के अट्ठम का तप था और वृद्धावस्था, इस कारण भट्टारक को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया, इस पर भट्टारक ने कहा-अबे ताराचन्द ? तुम्हारे गुरु को हमने जीत लिया, अब तू मेरा श्र.वक हो जा, ताराचन्द ने कहा ये तो वृद्ध और तपस्वी महात्मा हैं। इनके पट्टधर प्राचार्य श्री राजविजयसरि को ज.तो, तो मैं आपका धावक हो जाऊँ । वह नकी करके वे ऊपर चढ़े, और विजयदानमरिजो नीचे उतरे, ताराचन्द यात्रा करके अपने मुकाम पाया पौर स्वस्थ होकर प्राचार्य महाराज के पास गया और अपनी तथा मालवा की परिस्थिति से उनको वाकिफ किया और कहा-माज तक तो में दिगम्बर नहीं हुआ, परन्तु अब मालवे में योग्य गीतार्थ न आएगे, तो सारा मालव देश दिगम्बर सम्प्रदाय का अनुयायो बन जाएगा इत्यादि सब वृन्तान्त कहने के बाद शा० ताराचन्द अपने सौंध के साथ वापस उज्जनी चला गया; इघर दानविजयस रिजी गुजरात पहुंचे और राजविजयस रि को मुंजपुर से जल्दी बुलाया और शा० ताराचन्द के मुंह से सुनी हुई सभी बातें, उनको
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