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[पट्टावलो-पराग
उनमें एक में पुराने स्थायी प्राचार्य रहते थे। प्रभात में श्री राजविजयसूरि ने व्याख्यान शुरू किया, तब उस प्राचार्य ने अपना शिष्य उनके पास भेजकर व्याख्यान देने की मनाही करवाई। कहलाया कि यहां सभी पूनमीया श्रावक हैं, चऊदसीया कोई नहीं, इस पर राजविजयसूरि ने कहा-हमने पूनमीयों को मिटाने के लिये व्याख्यान शुरु किया है । इस पर उस प्राचार्य ने कहा-हमारे गांव में तुम व्याख्यान नहीं दे सकते, इस प्रकार उन दोनों में खींचतान और विवाद हुमा, एक श्रावक ने वहां आकर श्री राजविजयसूरि को एकान्त में कहा--स्वामी ! माप इसको किसी प्रकार से गांव में से निकल वा दें, तो बहुत अच्छा हो, श्रावक की इस सूचना को पाकर राजविजयसूरि राजकुल में गए, वहां भाला राजपूत का राज्य था। गुरु को देख कर उसने प्रादर के साथ प्रणाम किया और पूछा-स्वामी ! दरबार में कैसे पधारे ? गुरु ने कहाहम आठम और चउदस को मानते हैं और यहां का रहने वाला प्राचार्य सातम और पूनम मानता है। यह सुनकर ग्रामाधीश ने कहा, इस बात का निश्चय कैसे किया जाय कि किसका मानना सत्य है ? तब राजविजयसूरि ने कहा-सूरज के कोठे में मूलदेव की प्रतिमा है, वह ठहरावे, वह सही। इस पर राजा प्रजा सर्व मूल आचार्य के साथ इकट्ठे हुए, स्थायी प्राचार्य को समरावाब की माता मोर वाविभा वीर प्रत्यक्ष था। तब राजसरि को चक्रेश्वरी प्रत्यक्ष थी। दोनों प्राचार्यों ने अपने-अपने इष्ट देवों का ध्यान किया और पाने पर कारण बताया । देव ने कहा-पाठम चउदस हमारी है-इसलिये इस सम्बन्ध में हम कुछ नहीं कहेंगे, पुराने प्राचार्य ने मन में कहा-अब मेरा न चलेगा, दूसरे दिन राजा प्रादि सब सर्य के कोठे पर गए, वहां चक्रेश्वरी मे मूल देव की प्रतिमा में प्रवेश कर कहा, राजविजयसूरि जो कहते है वही तिथि सत्य है, पुराने प्राचार्य की तिथि सत्य नहीं । सभा समक्ष वह प्राचार्य झूठा पड़ा और रात में अपनी चीज सामान लेकर गुप्तरूप से पाटन चला गया, बाद में राजविजयसूरि को उपाश्रय में लेजाकर ठहराया, सर्व श्रावक वासक्षेप लेकर चउदसीए हुए, १०० घर प्रोसवालों के, श्रीमाली तथा पोरवाल आदि पादि सब तपा श्रावक बने। .. भी संघ की बीनती से पं० देवविजय मणि को चातुर्मास्य के लिए वहां रक्खा, गुरु ने विहार किया, वहां से मुजपुर जाकर चौमासा किया।
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