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________________ द्वितीय-परिच्छेद - - श्लोक का प्रत्युत्तर मांगा, राजविजय सूरि ने कहा - चोर के साथ वाद क्या और प्रत्युत्तर क्या ? पण्डित बोला - जो चोर हो उसके नाक, कान, काट कर देश-निकाला करना चाहिये। उस समय बादशाह श्री बहादुरशाह का दीवान श्री राजविजयसूरिजी के पास बैठा था, उसकी हाजरी में राजविजयसूरि ने एक नया श्लोक लिख कर दोवान की मुहर लगवाई और पण्डित को देते हुए राजविजयसूरि ने पण्डित को कहा - लो, यह पत्र तुम्हारे भट्टारकजी को दे देना। चिट्ठी पढ़ कर भट्टारकजी ने जाना कि अपनी चोरी तो प्रकट हो गई है। हाँ, उत्तर पर दीवान की मुहर छाप भी हो गई है। अब यहां रहना सलामत नहीं, यह सोच कर भट्टारकजी अपना चीज-भाव लेकर उसी रात को वहां से चले गये। इस बात का पता लगने पर दूसरे दिन शा. ताराचन्द मन्त्री ने विजयराजसूरिजी को तपागच्छ के उपाश्रय में पधराये। इस बात का बहादुरशाह बादशाह को पता लगने पर उसने विजयराजसूरिजी को अपने पास बुलाया और उनका बड़ा सत्कार किया। बादशाह ने विजयराजसूरि से भनेक बातें पूछीं पोर सूरिजी ने उनका संतोषजनक उत्तर दिया । राजविजयसूरिजी ने मालवा में अनेक चातुर्मास्य किये और श्वेताम्बर जैन संघ को अपने धर्म में स्थिर किया। कहते हैं कि श्री राजविजयसूरिजी के पास एक कामदुधातर्पणी थी। उसमें जो पदार्थ भरते, प्रखूट हो जाता। राजविजयसूरिजी के पास हानर्षि और वानर्षि नामक दो गुगभाई पण्डित थे। उन्होंने श्री राजविजयसूरिजी से तर्पणी मांगी, तब राजविजयसूरिजी ने उसे देने से इन्कार कर दिया। हानषि, वानर्षि इस कारण से रुष्ट हो गये पौर राजविजयसूरि की चुगलियां खाने लगे। उन्होंने गच्छपति को लिखा - राजविजयसूरि यहां आकर बहुत ही शिथिलाचारी हो गए हैं, फिर भी उनके लेख पर विजयदानसूरिजी ने कोई ध्यान नहीं दिया, तब कालान्तर में उन्होंने गच्छपति को लिखा कि राजविजयसूरिजी का यहां मकस्मात् स्वर्गवास हो गया है। इस पत्र को पढ़ कर श्री विजयदानसूरिजी ने राजनगर में श्री हीरविजयसूरि को अपना पट्टधर बना लिया। श्री राजविजयसूरि को इस Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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