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________________ ३८६ ] [ पट्टावली-पराग कर पद प्राप्त होने के बाद १४ वें और २० वें वर्ष में क्रमशः जमालि और तिष्यगुप्त को श्रमरण-संघ से वहिष्कृत किये जाने के प्रसंग सूत्रों में उपलब्ध होते हैं, इसी प्रकार जिन-वचन से विपरीत अपना मत स्थापित करने वाले जैन साधुओं के संघबहिष्कृत होने के प्रसंग "प्रावश्यक-नियुक्ति" में लिखे हुए उपलब्ध होते हैं, इस प्रकार से संघ बहिष्कृत व्यक्तियों को शास्त्र में निह्नव इस नाम से उल्लिखित किया है और 'प्रोपपातिक" "स्थानाङ्गसूत्र" एवं आवश्यकनियुक्ति में उनकी संख्या ७ होने का निर्देश किया है । वीरजिन-निर्वाण को सप्तम शती के प्रारंभ में नग्नता का पक्ष कर अपने गुरु से पृथक् हो जाने और अपने मत का प्रचार करने की आर्य शिवभूति की कहानी भी हमारे पिछले भाष्यकार तथा टीकाकारों ने लिखी है, परन्तु शिवभूति को संघ से बहिष्कृत करने की बात प्राचीन साहित्य में नहीं मिलती। इसका कारण यही है कि तब तक जैन श्रमण बहुधा वसतियों में रहने वाले बन चुके थे और उनके पक्ष, विपक्ष में खड़े होने वाले गृहस्थ श्रावकों का उनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बन चुका था। यही कारण है कि पहले "श्रमरण-संघ' शब्द की व्याख्या "श्रमणानां संघः श्रमरण-संघः" अर्थात् "साधुओं का संघ" ऐसी की जाती थी, उसको बदलकर "श्रमणप्रधानः संघः श्रमणसंघः" अर्थात् जिरासंघ में साधु प्रधान हों वह "श्रमणसंघ" ऐसी व्याख्या को जाने लगी। प्रार्य स्कन्दिल के समय में जो दूसरी बार आगमसूत्र लिखे गए थे, उस समय श्रमणसंघ शब्द की दूसरी व्याख्या मान्य हो चुकी थी और सूत्र में "चाउवणे सघो" शब्द का विवरण, "समणा, समणीमो, सावगा, साविगानो" इस प्रकार से लिखा जाने लगा था। इसका परिणाम श्रमरणसंघ के लिए हानिकारक हुआ, अपने मार्ग में उत्पन्न होने वाले मतभेदों और प्राचार-विषयक शिथिलताओं को रोकना उनके लिए कठिन हो गया था। जिननिर्वाण की १३ वीं शती के उत्तरार्ध से जिनमार्ग में जो मतभदों का और आचारमार्ग से पतन का साम्राज्य बढ़ा उसे कोई रोक नहीं सका। वर्तमान आगमों में से "प्राचारांग" और "सूत्रकृतांग" ये दो सूत्र मौर्यकालीन प्रथम आगमवाचना के समय में लिखे हुए हैं। इन दो में से Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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