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________________ प्रथम परिच्छेद ] [ १११ वे और भी आकर्षक हो गये । फलस्वरूप प्राचीन सिद्धान्तों के आधार से बने नये ग्रन्थों और सिद्धान्तों का सार्वत्रिक प्रसार हो गया । इस प्रकार प्राधुनिक दिगम्बर सम्प्रदाय और इसके श्वेताम्बर विरोधी सिद्धान्तों की नींव विक्रम की छठी शताब्दी के अन्त में कुन्दकुन्द ने और ग्यारहवीं शती में भट्टारक वीरसेन ने डाली। हमारे उक्त विचारों का विशेष समर्थन नीचे की बातों से होगा : (१) परम्परागत श्वेताम्बर जैन आगम जो विक्रम की चौथी शती में मथुरा और वलभी में और छठो सदी के प्रथम चरण में माथुर और वालभ्य संघ को सम्मिलित सभा में वलभी में व्यवस्थित किये और लिखे गए थे, उनमें से स्थानांग में प्रोपपातिक उपांग सूत्र में और प्रावश्यकनियुक्ति में सात निह्नवों के नामों और उनके नगरों के भी उल्लेख किये गये हैं। ये ७ निह्नव मात्र साधारण विरुद्ध मान्यता के कारण श्रमणसंघ से बाहर किये गये थे, उनमें अन्तिम निह्नव गोष्ठामाहिल था; जो वीर संवत् ५८४, विक्रम संवत् ११४ में संघ से बहिष्कृत हुआ था। यदि विक्रम को चतुर्थ शताब्दी तक भी दिगम्बर परम्परा में केवलिकबलाहार का और स्त्रो तथा सवस्त्र की मुक्ति का निषेध प्रचलित हो गया होता तो उनको निह्नवों को श्रेरिण में परिगणित न करने का कोई कारण नहीं था, परन्तु ऐसा नहीं हुआ, इससे जान पड़ता है कि विक्रम की पांचवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर विरोधी सिद्धान्त प्रतिपादक वर्तमान दिगम्बर परम्परा का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। (२) विक्रम की सातवीं सदी के पहले के किसी भी लेन-पत्र में वर्तमान दिगम्बर-परम्परा सम्मत श्रुतकेवलि, अंगपाठी, प्राचार्यों, गणों; गच्छों और संघों का नामोल्लेख नहीं मिलता। (३) दिगम्बर परम्परा के पास एक भी प्राचीन पट्टावली नहीं है। इस समय जो पट्टावलियां उसके पास विद्यमान बताई जाती हैं, वे सभी बारहवीं सदी के पीछे की हैं और उनमें दिया हुअा प्राचीन गुरुक्रम बिल्कुल ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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