________________
तपगच्छ पाठ- परम्परा स्वाध्याय
-
ले० : हर्षसाग रोपाध्याय शिष्य
हर्षसाग० शिष्य लिखते हैं- रविप्रभसूरि भीसमइ पाटित्र विश्ररण जिनरंजइ वरसइ ग्यारसइस तिरइ कुमति मदभंजइ ॥
ऊपर के उल्लेख से स्वाध्यायलेखक रविप्रभसूरि का समय १११७ सूचित करते हैं जो विचारणीय है । स्वाध्याय - लेखक ने विजयदानसरि के बाद श्री राजविजयसूरि का नाम लिखा है और उनको विजयदानसूरि का भावी पट्टधर लिखा है । लेखक ने अन्त में संवत् भी दिया है, पर बह स्पष्ट रूप से जाना नहीं जाता । अन्तिम अंक ६६ का होने से ज्ञात होता है कि यह स्वाध्याय १६६६ के वर्ष की कृति होनी चाहिए ।
श्री तपगच्छीय पट्टावली सज्झाय :
इस स्वाध्याय का प्रारम्भ नीचे के पद्य से होता है :
गुरु परिपाटी सुरलता, मूल पवडुरग मीर । शतसाखई प्रसरइ घणु, जय जगगुरु महावीर ॥१॥
Jain Education International 2010_05
कर्ता : मेघमुनि
स्वाध्याय में विजयसेनसूरि तक पट्ट-क्रम व्यवस्थित रूप से दिया है । स्वाध्याय के अन्त की निम्नोद्धृत गाथा में लेखक ने अपना परिचय दिया
जय तप गच्छ मंडरण, कुमत खंडरण सहजकुशल पंडितवरो । तस सोस पंडित माणिक कुशलो सकल साधु शोभा करो ॥
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org