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द्वितीय- परिच्छेद ]
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पट्ट पर प्रद्युम्नसूरि, प्रद्य ुम्नसूरि के पट्टधर फिर मानदेवसूरि और मानदेवसूरि के पट्ट पर विमलचंद्रसूरि हुए। विमलचन्द्र के पट्टधर उद्योतनसूरि श्री उद्योतनसूरि के पट्ट पर वटगच्छ-प्रवर्तक सर्वदेवसूरि, सर्वदेवसूरि के पट्ट पर श्री देवसूरि श्रौर देवसूरि के पट्ट पर फिर सर्वदेवसूरि हुए 8|१०|'
"जेण य अट्ठायरिया, समयं सुत्तत्यदायमा ठविना ।
तत्थ धरणेसर सूरी, पभावगो वीरतित्थस्स ॥ ११ ॥ खवरणारणं सत्तसया - एगुच्चि दिक्खिया सहत्थे । चित्तपुरि जिरण वीरो पट्टिश्रो चित्तगच्छो य ॥ १२॥"
'जिन द्वितीय सर्वदेवसूरि ने सूत्र और अर्थ के देने वाले प्राठ मुनियों को प्राचार्य पद पर स्थापित किया, जिनमें भगवान् महावीर के शासनप्रभावक धनेश्वरसूरि भी एक थे । इन्हीं धनेश्वरसूरि ने ७०१ दिगम्बर साधु एक साथ अपने शिष्य बनाये थे, चैत्रपुर नगर में वीर जिन की प्रतिष्ठा करने से इनका समुदाय " चैत्रगच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ || ११|१२|| '
"तत्थ सिरिचित्सगच्छे, तो गरणी भुवरणचंद तप्पट्टे । जावज्जीवं बिल - तबकररणाभिग्गहा उग्गा ॥ १३ ॥ " श्रीबालगोव सुपसिद्ध-सुद्ध संपत्त "तबगरगाभिक्खा" । सिरिदेव भद्दगुरुरणो, जगचंदो तप्पढम सोसो ॥१४॥”
'उस श्री चैत्रगच्छ में घनेश्वरसूरिजी के पट्ट पर भुवनचन्द्र प्राचार्य हुए और भुवनचन्द्र के पट्ट पर यावज्जीव आयम्बिल तप करने के प्रतिग्रहवान् उग्रविहारी श्री देवभद्र गुरु हुए, जिनसे बाल गोपाल सुप्रसिद्ध सुद्ध संयमवान् " तपागरण" की प्रसिद्धि हुई, उन देवभद्र गुरु के प्रथम शिष्य " जगच्चन्द्रसूरि" हुए | १३|१४|| '
"देविद - विजयचंदा, गुरुबंधू खेम किति कित्तिधरो । गुरुहेमकलस पुज्जो, रयणायरसूरिणो सधा ॥ १५॥ यह मरिसेहर - गुरुरणो सिरिधम्मदेवन । खससी । अभय सिंहवस, जयनिलया रयणसिंहगुरु ॥१६॥"
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