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________________ १७२ ] [ पट्टावलो-पराग ___ 'जगच्चन्द्रसूरिजी के दो शिष्य हुए, प्राचार्य देवेन्द्रसूरिजी और विजयचन्द्रसूरिजी । इन दो गुरु-भाइयों में से विजयचन्द्रसूरि के पट्टवर श्री क्षेमकीतिसूरि हुए, जिन्होंने 'बृहत्कल्प' पर टीका लिखकर अपनी कीर्ति का विस्तार किया। क्षेमकीर्ति के पट्ट पर हेमकलशसूरि हुए, हेमकलश के पट्टधर श्री रत्नाकरसूरि हुए, जो सच्चे रत्नाकर थे। रत्नाकरसूरि के पट्ट पर श्री रत्नप्रभसूरि, रत्नप्रभ के पाट पर श्री मुनिशेखरसूरि, मुनिशेखर के पट्ट पर धर्मदेवसूरि हुए, धर्मदेवसूरि के पट्ट पर ज्ञानचन्द्रसूरि, ज्ञानचन्द्र के पट्ट पर श्री अभयसिंहसूरि, अभयसिंह के पट्ट पर श्री जयतिलकसूरि हुए, जयतिलकसूरि के पट्ट पर रत्नसिंहसूरि हुए ॥१५।१६।।' "सिरिउदयवल्लहा पुरण, सच्चत्था नारगसायरा गुरुरणो। सिरिउदयसायरा वि य, लद्धिवरा लद्धिसायरया ॥१७॥ सिरिधरणरयणगरणाहिब, अमरानो रयरणतेप्रो रयणा । गुरुभायरा गुणन्नू, सूरिवरो देवरयरणो य ॥१८॥" 'प्राचार्य रत्नसिंह के पट्ट पर श्री उदयवल्लभसूरि और उदयवल्लभ के पट्ट पर नामानुरूप गुण वाले श्री ज्ञानसागरसूरि, ज्ञानसागर के पट्टधर उदयसागरसूरि, उदयसागर के पट्टधर लब्धिधारी श्री लब्धसागरसूरि, लब्धिसागर के पट्ट पर श्री धनरत्नसूरि, धनरत्न के पट्ट पर श्री अमररत्नसूरि और श्री तेजरत्नसूरि गुरुभ्राता थे, अमररत्नसूरि ने चार विद्वानों को प्राचार्य बनाया था, जिनके नाम – तेजरत्नसूरि, देवरत्नसूरि, कल्याणरत्नसूरि और सौभाग्यरत्नसूरि थे ।। १७:१८॥' "सिरिदेवसुंदराभिहा, विहरंता विजयसुन्दरा गुरुणो। चिरजीविणो हवंतु, जिरणसासरणभूसरणा परमा ॥१६॥ घणरयरणसूरिसीसा, विबुहवरा भाणुमेरुगणिपवरा । माणिकरयणवायग, - सीसा लहुभायरा तेसि ॥२०॥ नयसुंदराभिहारणा, उवज्झाया सुगुरुचरणकमलाई । पणमंति भत्तिजुत्ता, गुरुपरिवाडि पयासंता ॥२१॥" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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