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________________ द्वितोय-परिच्छेद ] [ १८१ - आजकल "श्री चन्द्रगच्छ” "बृहद्गरण" और "तपागण" इन नामों से गच्छ व्यवहृत होता है, जब कि पूर्वकाल में कोटिक गच्छ में "चान्द्रकुल" और “वाजी शाखा" ऐसी प्रसिद्धि थी। प्राजकल श्री देवेन्द्र सूरि, विजयचन्द्रसूरि और देवभद्र वाचक “तपागरण' के भूषण रूप हैं। प्राचार्य जगच्चन्द्रसूरि चारित्र-धर्म को ऊंचा उठाने में सहायक मित्र समान श्री देवभद्र गणि का बहुमान करते हैं और गुरु की तरह इनकी गणना करते हैं, तब संविग्र देवभद्र गरिण भी अपने परिवार के साथ श्री जगच्चन्द्रसूरि को हर्षपूर्वक अपना गुरु मानते हैं। श्री जगच्चन्द्रसूरिजी के पट्टधर श्री देवेन्द्रसूरि के विद्यानन्दादि अनेक विद्वान् शिष्य हुए, तब लघुशाखा में श्री विजयचन्द्रसूरि के पट्ट पर तीन प्राचार्य हुए, श्री वज्रसेनमूरि १, श्री पद्मचन्द्रसूरि २ और श्री क्षेमकीर्तिसूरि । प्राचार्य क्षेमकीर्तिसूरि ने सं० १३३२ में “बृहत्कल्प" की टीका बनाई। क्षेमकीति के बाद हेमकलशसूरि, हेमसूरि के पट्ट-भूषण यशोभद्रसूरि हुए, । यशोभद्रसूरि के पट्टधर रत्नाकरसूरि और रत्नाकरसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि हुए । रत्नप्रभ के शिष्य मुनिशेखर, मुनिशेखरसूरि के शिष्य धर्मदेवसूरि, धर्मदेव के श्री ज्ञानचन्द्र सूरि, ज्ञानचन्द्र के श्री अभयसिंहसूरि, श्री अभयसिंहसूरि के हेमचन्द्रसूरि, हेमच द्रसूरि के जयतिलकसूरि, जयतिलक के जिनतिलकसूरि और जिनतिलकसूरि के माणिक्यसूरि नामक प्राचार्य हुए। ये सब गुणवन्त आचार्य थे, फिर भी दुष्षमकाल के प्रभाव से अपनी शाखा का पार्थक्य मानने वाले थे। गुणवन्त आचार्य श्रीसंघ के कल्याणकर्ता हों। प्राचार्य मुनिसुन्दरसूरिजी तक वृद्ध शाखा से लघु शाखा को भिन्न हुए करीब आठ-नौ पीढ़ी हो चुकी थीं, फिर भी वृद्ध शाखा की प्राचार्यपरम्परा पर उनका कितना सद्भाव था। वह ऊपर के निरूपण से ज्ञात होता है। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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