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________________ ४७२ ] [ पट्टावली-पराग “समकितसार" के पृष्ठ ११ - १२ में "आर्यक्षेत्र की मर्यादा" इस शीर्षक के नीचे ऋषि जेठमलजी ने "बृहत्कल्पसूत्र" का एक सूत्र देकर प्रार्य अनार्य क्षेत्र को हद दिखाने का प्रयत्न किया है - "कप्पइ निग्गन्थारणं वा निग्गयोणं वा पुरथिमेणं जाव अंग मगहात्रों एत्तए, दक्खिरणेणं जाव कोसम्बोसो एत्तए, पच्चत्यिमेणं जाव थूगाविसयाओ एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयानो एसए एयावयावकप्पइ, एयावयाव पारिए खेते, नो से कप्पइ एत्तो वाहि, तेरण परं जत्य नाणदंसरणचरित्ताई उस्सप्पन्ति ॥४८॥" ___ उपर्युक्त पाठ "समकितसार' में कितना अशुद्ध छपा है, यह जानने की इच्छा वाले सज्जन "समकितसार" के पाठ के साथ उपर्युक्त पाठ का मिलान करके देखे कि "समकितसार" में छपा हुआ पाठ कितना भ्रष्ट है, इस पाठ को देकर नीचे चार दिक्षा की क्षेत्र मर्यादा बताते हुए ऋषिजी कहते हैं - "पूर्व दिशा में अंगदेश मोर मगधदेश तक आर्यक्षेत्र है, अब भी राजगृह और चम्पा की निशानियां पूर्व दिशा में हैं। दक्षिण में कौशम्बी नगरी तक प्रार्यक्षेत्र है, आगे दक्षिण दिशा में समुद्र निकट है इसलिए समुद्र की जगती लगती है। । पश्चिम दिशा में थूभणानगरो कही है, वहां भी कच्छ देश तक प्रार्यक्षेत्र है, प्रागे समुद्र की जगती पाती है। उत्तर दिशा में कुणाल देश और श्रावस्ती-नगरी है, जहां आज स्यालकोट नामक शहर है। मागे ऋषिजी कहते हैं - कितनेक नगरों के नाम बदल गए हैं। उनको लोकोत्तर से जानते हैं, जैसे - पाटलीपुर जो आज का पटना है, देसारणपुर वह मन्दसौर है, हत्थरणापुर वह माज की दिल्ली, सौरीपुर वह प्रागरा पट्ठीगांव वह वढवारण है। ___Jain Education International 2010_05 For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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