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________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४७१ स्थविरों में चतुर्दश पूर्वधर भी हो सकते है और सम्पूर्ण दशपूर्वधर भी हो सकते हैं, इन श्रुतधरों की कृतियां प्रागमों में परिगणित होती हैं, तब इन से निम्न कोटि के पूर्वधरों की कृतियां सूत्रव्याख्यांग या प्रकार्णक कहलाते हैं मोर उनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार पढ़ने वालों के हितार्थ सिद्धान्त मर्यादा के बाहर नहीं जाने वाले उपयुक्त परिवर्तन भी होते रहते हैं, इस प्रकार के परिवर्तन ३२ सूत्रों में भी पर्याप्त मात्रा में हुए है, परन्तु लौका के अनपढ अनुयायियों को उनका पता नहीं है । लौंका के अनुयायियों में प्रचलित सैकड़ों ऐसी ब तें हैं जो ३२ भागमों में नहीं हैं और उन्हें वे सच्ची मानते हैं तव कई बातें उनमें ऐसी भी देखो जाती हैं जो उनके मान्य आगमों से भी विरुद्ध हैं, इसका कारण मात्र इस समाज में वास्तविक तलस्पर्शी ज्ञान का अभाव है। व्याकरण व्याधिकरण है : आज से कोई ५० वर्ष पहले ल कामत के अनुयायी साधुनों को कहते सुना है कि "व्याकरण में क्या रक्खा है, व्याकरण तो व्याधिकरण है।" स्थानकवासी साधुषों के उपर्युक्त उद्गारों का खास कारण था सत्रहवीं शती में लुकागच्छ के प्राचार्य मेघजी ऋषि ने अपना गच्छ छोडकर तपागच्छ में दीक्षित होने को घटना । इस घटना के बाद लुकामच्छ वालों ने व्याकरण का पढ़ना खतरनाक समझा और अपने पाठ्यक्रम में से उसको निकाल दिया था, यही कारण है कि वाद के लौंकागच्छ के आचार्य, यति और स्थानकवासी साधुनों के बनाये हुए संस्कृत, प्राकृत प्रादि के ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होते "समकित सार" के कर्ता ऋषि जेठमलजी जैसे अग्रगामी स्थानकवासी साधु भो सूत्रों पर लिखे हुए टिबों मात्र के आधार से अपना काम चलाते थे, यही कारण है कि भौगोलिक प्रादि की आवश्यक बातों में भी वे प्रज्ञान रहते थे, इस विषय में हम "समकितसार" का एक फिकरा उद्धृत करके पाठकों को दिखाएगे कि उन्नीसवीं शती तक के लौकागच्छ के वंशज कितने प्रबोध होते थे। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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