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________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ४७ रेवसिंहो खंदिल - हिमवं नागज्जुरणा य तेवीसं । सिरिभूई-दिन-लोहिच्च-दूसगरिणणो य देवड्डी ॥" अर्थात् : 'प्राचार्य बलिस्सह ११, स्वाति १२, श्यामाचार्य १३, जीतधर शाण्डिल्य १४, आर्य समुद्र १५, आर्य मंगू १६, नंदिल्ल १७, नागहस्ती १८, रेवतिनक्षत्र १६, ब्रह्मद्वीपिकसिंह २०. स्कन्दिल २१, हिमवान् २२, नागार्जुनवाचक २३, श्रो भूतिदिन्न २४, थी लौहित्य २५, श्री दुष्यगणि २६ और श्री देवद्धिारण २७, गे २७ स्थविर माथुरीवाचना के अनुसार युगप्रधान वाचक हुए । अब हम वालभीवाचनानुयायिनी स्थविर परम्परा का निरूपण करते हैं : "सिरि वीराउ सुहम्मो, वीसं चउचत्त वास जंबुस्स । पभवेगारस सिज्ज, -भवस्स तेवीस वासारिण ॥१॥ पन्नास जसोभद्दे, संभूयसटि भद्दबाहुस्स । चउदस य थूलभद्दे, पणयालेवं दुसगसट्ठी ॥२॥ अज्ज महागिरि तीसं, प्रज्जसुहत्थीरण वरिस छायाला । इगचालीसं जारणसु, निगोयवक्खाय सामज्जे ॥३॥ रेवइमित्ते वासा, होति छत्तीस उदहि नामम्मि । वासारिण नवमंशू - थेरंमि वीसव साणि ॥४॥ चउयाल अज्जधम्मे, एगुणचालीस भद्दगुत्ते । सिरिगुत्ति पनर वइरे, छत्तीसं हुंति वासारिण ॥५॥ तेरस वासा सिरिअज्ज, -रक्खिए बोस पूसमित्तस्स । सिरि वज्जसेणि तिणि य गुरगसत्तरि नागहत्थिस्स ॥६॥" अर्थात् : 'वोरनिर्वाण से २० वर्ष व्यतीत होने पर सुधर्मा का निर्वाण हुमा, सुधर्मा से ४४ वर्ष के बाद जम्बू का निर्वाण हुमा, जम्बू से ११ वर्ष के बाद प्रभव का और प्रभव से २३ वर्ष के बाद शय्यम्भव का स्वर्गवास हमा। शय्यम्भव से ५० वर्ष बाद यशोभद्र का तथा यशोभद्र से ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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