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आचार्य कुन्दकुन्द का सत्ता-समय
श्राचार्य कुन्दकुन्द के सत्ता समय के सम्बन्ध में दिगम्बर जैन विद्वान् भी एकमत नहीं हैं । कोई उनको विक्रम की प्रथम शती में हुआ मानते हैं, कोई दूसरी शती में, तब कोई विद्वान् दूसरी शती से भी परवर्ती समय के कुन्दकुन्दाचार्य होने चाहिए ऐसे विचार वाले हैं। परन्तु हमने दिगम्बर जैन साहित्य का परिशीलन कर इस विषय में जो निर्णय किया है, वह उक्त सभी विचारकों से जुदा पड़ता है। जितने भी कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्धि पाए हुए " प्राभृत" आदि ग्रन्थ पढ़े हैं, उन सभी से ही प्रमाणित हुआ है कि कुन्दकुन्दाचार्य विक्रम को षष्ठी शती के पूर्व के व्यक्ति नहीं हैं । हमारी इस मान्यता के साधक प्रमाण निम्नोद्धृत हैं:
(१) कुन्दकुन्दाचार्य-कृत “पंचास्तिकाय" की टीका में "जयसेनाचार्य लिखते हैं कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य ने शिवकुमार महाराज के प्रतिबोध के लिए रचा था। डा० पाठक के विचार से वह "शिवकुमार " ही कदम्बवंशी " शिवमृगेश" थे जो सम्भवतः विक्रम की छठी शताब्दी के व्यक्ति थे । प्रतएव इनके समकालीन कुन्दकुन्द भी छठी सदी के व्यक्ति हो सकते हैं ।
(२) "समय - प्राभृत" की गाथा ३५० तथा ३५१ में कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं : "लोगों के विचार में देव, नारक, तियंच और मनुष्य प्राणियों को विष्णु बनाता है, तथा श्रमणों (जैन साधुयों) के मत से षट्ििनकाय के जीवों का कर्त्ता आत्मा है ।
! " इस प्रकार लोक और श्रमणों के सिद्धान्त में कोई विशेष भेद नहीं है । लोगों के मत में कर्ता विष्णु है और श्रमणों के मत में "आत्मा" ।
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