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________________ प्रथम परिच्छेद ] [ १०१ - कहने की जरूरत नहीं है कि "विष्णु" को कर्ता पुरुष मानने वाले "वैष्णव सम्प्रदाय की उत्पत्ति विष्णु स्वामी से ई० स० की तीसरी शताब्दी में हुई थो। उनके सिद्धान्त ने खासा समय बीतने के बाद ही लोक-सिद्धान्त का रूप धारण किया होगा, यह निश्चित है। इससे कहना पड़ेगा कि कुन्दकुन्द विक्रम की चौथी सदी के पहले के नहीं हो सकते । (३) "रयणसार" की १८वीं गाथा में सात क्षेत्र में दान करने का उपदेश है, श्वेताम्बर जैन साहित्य में सात क्षेत्रों में दान देने का उपदेश प्राचीन से प्राचीन ग्रन्थ 'उपदेशपद' में है, जो ग्रन्थ विक्रम की अष्टमी शती की प्राचीन कृति है। दिगम्बर गृन्थों में भी इसके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ में सात क्षेत्रों में दान देने का उपदेश हमने नहीं पढ़ा। उपरान्त उसी प्रकरण की गाथा २८वीं में कुन्दकुन्द कहते हैं : "पंचम काल में इस भारतवर्ष में यंत्र, मंत्र, तंत्र, परिचर्या (सेवा या खुशामद), पक्षपात और मीठे वचनों के ही कारण से दान दिया जाता है; मोक्ष के हेतु नहीं।" इससे यह साबित होता है कि कुन्दकुन्द उस समय के व्यक्ति थे, जब कि इस देश में तांत्रिक मत का खूब प्रचार हो गया था और मोक्ष को भावना की अपेक्षा से सांसारिक स्वार्थ और पक्षापक्षी का बाजार गर्म हो रहा था। पुरातत्त्ववेत्ताओं को कहने की शायद ही जरूरत होगी कि भारतवर्ष की उक्त स्थिति विक्रम की पांचवीं सदी के बाद में हुई थी। (४) "रयणसार" की गाथा ३२वीं में जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, जिनपूजा और तीर्थवन्दन विषयक द्रव्य भक्षण करने वालों को नरक-दुःख का भोगी बता कर कुन्दकुन्द कहते हैं : "पूजा दानादि का द्रव्य हरने वाला, पुत्रकलत्रहीन, दरिद्र, पंगु, गूंगा, बहरा और अन्धा होता है और चाण्डालादि कुल में जन्म लेता है। इसी प्रकार अगली ३३-३६ वीं गाथामों में पूजा और दानादि द्रव्य भक्षण करने वालों को विविध दुर्गतियों के दुःख-भोगी होना बतलाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द के समय में देवद्रव्य और दान दिये हुए द्रव्यों की दुर्व्यवस्था होना एक सामान्य बात हो गई थी। मन्दिरों की व्यवस्था में साधुओं का पूरा दखल हो चुका था और वे अपना www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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