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________________ २५६ ] [ पट्टावलो-पराग समय में ही हरिभद्रसूरि को बताया है। इस प्रकार समय की दृष्टि से ठीक व्यवस्थित नहीं है। प्रार्यवज्र के बाद इस पट्टावलीकार ने पट्टानुक्रम से १७ वज्रसेन, १८ चन्द्रसूरि, १६ समन्तभद्र, २० वृद्धदेवसूरि, २१ प्रद्योतनसूरि, २२ मानदेव, २३ मानतुङ्ग, २४ वीरसरि, २५ जयदेव, २६ देवानन्द, २७ विक्रम, २८ नरसिंह, २६ समुद्र, ३० मानदेव, ३१ विबुधप्रभ, ३२, जयानन्द, ३३ रविप्रभ, ३४ यशोभद्र, ३५ विमलचन्द्र, ३६ देवसरि, ३७ नेमिचन्द्र, ३८ उद्योतन और ३६ वर्धमान । इस प्रकार इसमें दी हुई पट्टपरम्परा पहली तथा दूसरी पट्टावलो से जुदा पड़ती है । पहली, दूसरी और तीसरी पट्टावली प्रार्य सुहस्ती तक एक-क्रम बताती है, इसके बाद पहली में सिंहगिरि, वज्र, पार्यरक्षित, दुर्बलिका पुष्यमित्र, मार्यनन्दि, रेवतिसरि, ब्रह्मद्वीपिकसिंह, भार्यसमित, सण्डिल्ल, हिमवान्, नागार्जुनवाचक, गोविन्दवाचक, सम्भूति, दिन, लौहित्यसूरि, (पू)ज्यगणी, उमास्वाति-वाचक, जिनभद्र, वृद्धवादी सूरीन्द्र, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र, देवसूरि, नेमिचन्द्र, उद्योतन, वर्धमान ये नाम क्रमशः पाए हैं। तथा दूसरी में आर्यसुहस्ती के बाद वज्र, कालिकाचार्य, गर्दभिल्ल. कालिकाचार्य, शान्तिसरि, हरिभद्र, सण्डिल्लसूरि, पार्यसमुद्र, आर्यमंगु, प्रार्यधर्म, मार्य भन्द, मार्यवयर, दुर्बलिका पुष्यमित्र, देवद्धिगणिक्षमाश्रमण, गोविन्दवाचक, उमास्वाति, देवेन्द्रवाचक, जिनभद्र गणी, शीलाङ्काचार्य, देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, उद्योतन, वर्धमान । इस प्रकार प्रथम की तीन पट्टावलियों में आर्य सुहस्ती तक पट्टकम में ऐकमत्य है और बाद में तीनों के तीन पन्थ जुदे पड़ते हैं, जो देवसूरि तक माकर तीनों मिल जाते हैं। (४) चौथी पट्टाबली उपाध्याय क्षमाकल्याणकजी ने विक्रम सं. १८३० में बनायी है । इस पट्टावली का प्रारम्भ उद्योतनसूरि से किया है। उद्योतन, वर्धमान, जिनेश्वर, जिनचन्द्र, अभयदेव, जिनवल्लभ, जिनदत्त, जिनचन्द्र, जिनपति, जिनेश्वर, जिनसिंह, जिनप्रबोध, जिनचन्द्र पौर जिन Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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