________________
४४४ ]
[ पट्टावली-पराग
२० वें नम्बर में आचार्य शाण्डिल्य का नाम लिखा है, और कोष्टक में भायं नागहस्ती एवं प्रायं भद्र के नाम हैं, परन्तु ये शाण्डिलाचार्य श्रुतधर शाण्डिल्य नहीं, क्योंकि श्रुतधर शाण्डिल्य का नाम १३ वां है, जो पहले लेखक ने खन्दिलाचार्य के रूप में लिख दिया है । प्रस्तुत शाण्डिल्य आर्य नागहस्ती और प्रार्य भद्र ये तीनों नाम देवगिरिग की गुर्वावली के हैं नोर गुर्वावली में इनके नम्बर क्रमश: ३३, २२ र २० हैं, जिनको लेखक बें ऊटपटांग कहीं के कहीं लिख दिए हैं।
२५ वें नम्बर के आगे श्री लोहगरिए नाम लिखा है, सो ठीक नहीं, शुद्ध नाम "लोहित्यगरिए" है ।
२६ नम्बर के नागे इन्द्रसेनजी लिखकर कोष्टक में दूष्यगरि लिखा है, वास्तव में "इन्द्रसेनजी " कोई नाम ही नहीं है, शुद्ध नाम "दूष्यगरिए" ही है ।
जैनसंघ तीर्थयात्रा को जा रहा था । लौंकाशाह जहां अपने मत का प्रचार कर रहे थे वहां संघ पहुंचा और वृष्टि हो जाने के कारण संघ कुछ समय तक रुका । संघजन लौंका का उपदेश सुनकर “दयाधर्म के अनुयायी बन गए और संघ को झागे ले जाने से रुक गए," यह कल्पित कहानी स्थानकवासी सम्प्रदाय की अर्वाचीन पट्टावलियों में लिखी मिलती है। परन्तु न तो सिरोही स्टेट के अन्दर अहवाड़ा अथवा श्रटवाड़ा नामक कोई गांव है, न इस कहानी की सत्यता ही मानी जा सकती है; तब अहवाड़ा में लौंका का जन्म बताने वाली बात सत्य कैसे हो सकती है । सं० १४७२ के कार्तिक सुदि १५ को गुरुवार होना पंचांग गणित के आधार से प्रमाणित नहीं होता, न उनके स्वर्गवास का समय ही १५४६ के चैत्र सुदि ११ को होना सिद्ध होता है ।
उपर्युक्त दोनों संवत् मनघडन्त लिखे हैं, क्योंकि उन दोनों तिथियों में "एफेमेरिज " के आधार से लिखित वार नहीं मिलते । अब रही दीक्षा की बात सो लौंकागच्छ की किसी भी पट्टावली में लोकाशाह के दीक्षा लेने की बात नहीं लिखी । प्रत्युत केशवजी ऋषि ने लौका को दीक्षित माना है,
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org