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चतुर्थ- परिच्छेद ]
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तब २१ वीं सदी के स्थानकवासी श्रमण संघ और " श्रमरणसुरतरु" के लेखक मुनिजी को लौंकाशाह के जन्म, दीक्षा और स्वर्गारोहण के समय का किस ज्ञान से पता लगा, यह सूचित किया होता तो इस पर कुछ विचार भी हो सकता था । खरी बात तो यह है कि पट्टावली-लेखकों तथा लौकागच्छ को अपना गच्छ कहने वालों को लोकाशाह को गृहस्थ मानने में संकोच होता था, इसलिये पंजाबी पट्टावली में से लोकाशाह कों पहले से ही श्रद्दश्य बना दिया था, अब मारवाड़ के श्रमरणों को भी अनुभव होने लगा कि लोकाशाह को साधु न मानला अपने गच्छ को एक गृहस्थ का चलाया हुआ गच्छ मानना है, इसी का परिणाम है कि 'श्रमणसुरतरु' के लेखक ने लोकशाह को दीक्षा दिलाकर "अपने गच्छ को श्रम प्रवर्तितगच्छ बताने की चेष्टा की है," कुछ भी करें, लोंका के अनुयायियों की परम्परा गृहस्थोपदिष्ट भार्ग पर चलने वाली है, वह इस प्रकार की कल्पित कहानियों के जोड़ने से ग्रागमिक श्रमण परम्पराम्रों के साथ जुड़ नहीं सकती ।
प्रारम्भिक पट्टावलियों के विवरण में लौंकागच्छीय और स्थानक - वासियों की पट्टावलियों के सम्बन्ध में हम लिख ग्राए है कि ये सभी पट्टावलियां छिन्नमूलक हैं । देवगिरिण क्षमा श्रमरण तक के २७ नामों से मी इनका एकमत्य नहीं है । किसी ने देवगिरिण क्षमा श्रमण को आर्यमहागिरि की परम्परा के मानकर नन्दी की स्थविरावली में लिया है, तब किसी ने उन्हें प्रार्य - सुहस्ती की गुरु परम्परा के स्थविर मानकर कल्पसूत्र की स्थविरावली में घसीटा है । वास्तव में दोनों प्रकार के लेखक देवगिरिक्षमा-श्रमण की परम्परा लिखने में मार्ग भूल गये हैं ।
देवद्विगरि क्षमा-श्रमण के बाद के कतिपय स्थविरों को छोड़कर "प्रभुवीर पट्टावली" में उसके लेखक श्री मणिलालजी ने लोकाशाह के गुरु तक के जो नाम लिखे हैं, वे लगभग सब के सब कल्पित हैं । उधर पंजाब के स्थानकवासियों की पट्टावली में जो नाम देवगिरि के बाद १८ नामों को छोड़कर शेष लिखे गए हैं, उनमें से भी अधिकांश कल्पित ही ज्ञात होते हैं, क्योंकि आधुनिक स्थानकवासी साधु उनमें के अनेक नामों को भिन्न
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