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चतुर्थ-परिच्छेद ]
नम्बर २० वां है, १३ वां नहीं, कोष्टक में आर्यदिन्न का नाम भी गलत लिखा है, आर्यदिन मार्य सुहस्ती की परम्परा के स्थविर थे और इनका पट्ट नम्बर ११ वां था, १३ वां नहीं।
१४ ३ नम्बर में जीतधर स्वामी का नाम लिखा है, जो ठीक नहीं है, क्योंकि जोतधर विशेष नाम नहीं है, किन्तु १३ वें नम्बर के आर्य शाण्डिल्य का विशेषण मात्र है।
१५ वें नम्बर में आर्य समुद्र का नाम दिया है पर आर्य समुद्र १४ वें नम्बर में हैं और आगे कोष्टक के श्री वज्रधर स्वामी ऐसा नाम लिखा है, यह भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि इस नाम के कोई भी स्थविर हुए ही नहीं हैं ।
१६ वें नम्बर के आगे "वयर-स्वामी" लिखा है, जो गलत है, इस नम्बर के नन्दिलाचार्य स्थविर ही हुए हैं, इनके आगे वज्रशाख १, चन्द्रशाखा २, निवृत्तिशाखा ३ और ४ विद्याधरीशाखा नाम लिखे हैं, ये भी यथार्थ नहीं हैं । वज्रस्वामी से वानीशाखा जरूर निकली है, "चन्द्र" नाम कुल का है शाखा का नहीं इसी तरह "निवृति" नहीं किन्तु “निर्वृति" नाम है और वह नाम शाखा का नहीं "कुल" का है, इसी तरह "विद्याधर" भी "कुल" का नाम है । शाखा का नहीं।
१७ वें नम्बर के प्राचार्य "रेवतगिरि" "श्री मार्यरक्षित" और श्री "धरणीधर" इनमें से पहले और तीसरे नाम के कोई श्रुतधर हुए ही नहीं है और भार्यरक्षित हुए हैं, तो इनका नम्बर २० वां है, १७ वां नहीं।
१८ वें और १६ वें नम्बर के प्रागे आचार्य "श्री सिंहगणि" नौर "स्थविर-स्वामी" ये नाम लिखे हैं, परन्तु दोनों नाम गलत है, क्योंकि इन नामों के कोई श्रुतधर हुए ही नहीं, सिंहगरिण के आगे शिवभूति का नाम लिखा है, सो ठीक है परन्तु शिवभूति वाचक-वंश में नहीं किन्तु देवद्धि गणि की गुर्वावली में है, यह बात लेखक को समझ लेना चाहिए थी।
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