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________________ ४४२ ] [ पट्टावली-पराग यह बात नामों की रचना और उनके प्रयोगों से ही पाठकगरण अच्छी तरह समझ सकते हैं । सुधर्मा से देवगिरिग तक के २८ नामों में भी लेखक महोदय ने अनेक स्थानों में अशुद्धियां घुसेड़ दी है, इनके दिये हुए देवगिरिण क्षमाश्रमण तक के नाम वास्तव में किसी की गुरु-परम्परा के नाम नहीं हैं, किन्तु ये माथुरी वाचनानुयायी वाचक-वंश के नाम है, जिसका खरा कम निम्न प्रकार का है ६ श्री चार्य महागिरि ११ " स्वास्तिसूरि १३ " १५ " श्रार्य मंगू १७, नागहस्ती १६, ब्रह्मद्वीपकसिंह जीतधर- शाण्डिल्य २१ हिमवान् २३ " २५” "" २७, गोविन्द वाचक लोहित्य देवगिरिण क्षमाश्रमण १० श्री बलिस्साहसूरि श्यामार्य १२ " आर्य समुद्र आर्य नन्दिल रेवती नक्षत्र स्कन्दिल नागार्जुन १४, १५, १८ " २०,” २२ " २४, भूतदिन्न २६,, दूष्यगणि 'श्रमणसुरतरु' के लेखक महाशय ने ११ वें नम्बर में सुहस्तीसूरि को रखा है, जो ठीक नहीं, क्योंकि महागिरि के बाद उनके अनुयोग-धर शिष्यों के नाम ही आते हैं, सुहस्ती का नहीं । १२ वें नम्बर में आचार्यश्री शान्ताचार्य लिखा है, इसी लाइन में नन्दिलाचार्य नाम लिखा है, वे भी यथार्थ नहीं हैं, खरा नाम स्वात्याचार्य है । सुप्रतिबुद्ध का नाम वाचक परम्परा में नहीं है, किन्तु सुहस्तिसूरि की की शिष्य परम्परा में है और नन्दिल का नाम १६ वें नम्बर में आता है । Jain Education International 2010_05 १३ वां नम्बर स्कन्दिलाचार्य का दिया है, जो गलत है । १३ वें नम्बर के श्रुतघर जीतश्रुतघर शाण्डिल्य हैं, स्कन्दिल नहीं । स्कन्दिलाचार्य का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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