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प्रथम-परिच्छेद ]
[ १.५
इन्हीं ताम्रपत्रों के सम्बन्ध में चौवरी महोदय का निम्नलिखित तर्क भी ध्यान देने योग्य है :
"यदि किन्हीं कारणों से मर्करा के ताम्रपत्रों को प्राचीन भी मान लिया जाय तो उस लेख के सन् ४६६ के बाद और लेख नं० १५० के सन् ९३१ के पहले चार-पांच सौ वर्षों तक बीच के समय में कोण्डकुन्दान्वय मोर देशीयगण का एक साथ लेखगत कोई प्रयोग न मिलना आश्चर्य की बात है और इतने पहले उस लेख में उक्त दोनों का एकाकी प्रयोग मर्करा के ताम्रपत्रों की स्थिति को अजीब सी बना देता है।"
मर्करा के ताम्रपत्रों में 'कौण्डकुन्दान्वय" शब्द प्रयोग से कुन्दकुन्दावायं के सत्ता-समय को विक्रम की दूसरी शतो तक खींच ले जाने वाले विद्वानों को प्राचार्य चौधरी महोदय के कथन पर विचार करना चाहिए।
इस सम्बन्ध में "जैन शिलालेख पंग्रह" के तृतीय भाग के प्राक्कथन में प्रो० हीरालालजी जैन डायरेक्टर प्राकृत जैन विद्यापीठ मुजप्फरपुर (विहार) को निम्नलिखित सूचनायें भी इतिहाससंशोधकों को अवश्य विचारणीय है :
(१) "मर्करा के जिस ताम्रपत्र लेख के आधार पर कोण्डकुन्दान्वय का अस्तित्व पांचवीं शती में माना जाता है, वह लेख परीक्षण करने पर बनावटी सिद्ध होता है तथा देशीयगण को जो परम्परा उस लेख में दी गई है, वही लेख नं० १५० (सन् ६३१) के बाद की मालुम होती है।
(२) कोण्डकुन्दाग्वय का स्वतन्त्र प्रयोग पाठवीं-नौवीं शती के लेख में देखा गया है तथा मूल संघ कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ सर्वप्रथम प्रयोग ले० नं० १८० (लगभग १०४४ ई०) में हुप्रा पाया जाता है।
(३) डॉ० चौधरी की प्रस्तावना में प्रकट होने वाले तथ्य हमारी भनेक सांस्कृतिक मोर ऐतिहासिक मान्यतामों को चुनौती देने वाले हैं। मतएव इनके ऊपर गम्भीर विचार करने तथा उनसे फलित होने वाली
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