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[ पट्टावली-पराग बातों को अपने इतिहास में यथोचित रूप से समाविष्ट करने की प्राव. श्यकता है।"
प्राचार्य कुन्दकुन्द के सम्बन्ध में उपर्युक्त विद्वानों का निर्णय लिखने के बाद इसी समय एक अन्य जैन विद्वान् का कुन्दकुन्दाचार्य का सत्ता-समय विक्रम की षष्ठी शती में होने का निर्णय दृष्टिगोचर हुप्रा, जो नीचे उद्धृत किया जाता है :
कुन्दकुन्दाचार्य विरचित सटीक "समय प्राभृत' का प्रथम संस्करण जो ईसवी सन् १९१४ में प्रकाशित हुअा था, उपको प्रस्तावना में उसके सम्पादक न्यायशास्त्री पं० श्री गजाधरलालजी जैन लिखते हैं :
"श्रीशिवकुमार-महाराज-प्रतिबोधनार्थ विलिलेख भगवान् कुंदकंदः स्वोयं ग्रंथमिति, समाविर्भावितं च पंचास्तिकायस्य क्रमशः कार्णाटिक. संस्कृत-टोकाकारः श्रीबालचन्द्र-जयसेनाचार्यः ततो युक्त्यानयापि भगवत्कंदकुंदसमयः तस्य शिवमृगेशवर्मसमानकानीनत्व त् ४५० तमशकसंवत्सर एव सिद्धयति, स्वीकारे चास्मिन् क्षतिरपि नास्ति कापीति ॥" (पृ०८)
अर्थात् 'धी शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिए भगवान् कंदकुंद ने अपने इस ग्रन्थ को रचा था, ऐसा “पंचास्तिकाय सार" के क्रमशः कार्णाटिक-संस्कृत टीकाकार श्री बालचन्द्र, जयसेनाचार्य ने प्रकट किया है, इस युक्ति से भी भगवान् कुंदकुंद का समय शिवमृगेशवर्म के समकालीन होने से ४५० वां शक संवत्सर सिद्ध होता है और इसके स्वीकार में कुछ बाधक भी नहीं है।'
पं० गजाधरलालजी के उपर्युक्त विचार के अनुसार भी कुंदकुंदाचार्य का सत्ता-समय शक संवत् ४५० में सिद्ध होता है, जो हमारे मत से ठीक मिल जाता है।
. श्रवणबेलगोल तथा उसके आसपास के जैन शिलालेखों में शक की पाठवीं शती के पहले के किसी भी लेख में कुंदकंद का नाम निर्देश न मिलना
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