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________________ ४६८. [ पट्टावलो-पराग सूरि, जिनेश्वरमूरि, ज़िनवल्लभगणि, मुनिचन्द्रसूरि, धनेश्वरसूरि, जगचन्द्रसरि आदि अनेक उद्यतविहारी प्राचार्य और उनके शिष्य परिवार अप्रतिबद्ध विहार से विचरते थे, तथापि एक के बाद एक नये सुधारक गच्छों की सृष्टि से जैनसंघ में जो पूर्वकालीन संघटन चला आ रहा था वह विशृखल हो गया। इसी के परिणाम-स्वरूप शाहलौका शाह कडुअा आदि गृहस्थों को अपने पन्थ स्थापित करने का अवसर मिला था, न कि उनके खुद के पुरुषार्थ से। उपर्युक्त जैनसंघ की परिस्थिति का वर्णन पढ़कर विचारक समझ सकेंगे कि श्रमणसमुदाय में से अधिकांश शिथिलाचार के कारण निर्बल हो जाने से सुधारकों को नये गच्छ और गृहस्थों को श्रमणगण के विरुद्ध अपनी मान्यताओं को व्यापक बनाने का सुअवसर मिला था, किसी भी संस्था या समाज को बनाने में कठिन से कठिन पुरुषार्थ और परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है, न कि नष्ट करने में । समाज की कमजोरी का लाभ उठाकर क्रियोद्धार के नाम से नव गच्छसर्जकों ने तो अपने बाड़े मजबूत किये ही, पर इस अव्यवस्थित स्थिति को देखकर कतिपय श्रमरणसंस्था के विरोधी गृहस्थों ने भी अपने-अपने मखाड़े खड़े किये और आपस के विरोधों और शिथिलाचारों से बलहीन बनी हुई श्रमणसंस्था का ध्वंस करने का कार्य शुरू किया। लौंका तथा उसके अनुयायी मन्दिर तथा मूर्तियों की पूजा की "अतिप्रवृत्तियों का उदाहरण दे देकर गृहस्थवर्ग को साधुओं से विरुद्ध बना रहे थे। कडुवा जैसे गृहस्थ मूर्तिपूजा के पक्षपाती होते हुए भी साधुनों के शिथिलाचार की बातों को महत्त्व दे देकर उनसे असहकार करने लगे, चीज "बनाने में जो शक्ति व्यय करनी पड़ती हैं वह बिगाड़ने में नहीं। लौंकाशाह तथा उनके वेशधारी चेले हिंसा के विरोध में और दया के पक्ष में बनाई 'गई, चौपाइयों के पुलिन्दे खोल-खोलकर लोगों को सुनाते और कहते - "देखो भगवान् ने दया में धर्म बताया है, तब आजकल के यति स्वयं तो अपना प्राचार पालते नहीं और दूसरों को मन्दिर मूर्तिपूजा आदि का उपदेश करके पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि के जीवों की हिंसा करवाते हैं, बोलो - धर्म दया, में कि हिंसा में ? उत्तर मिलता दया में," तब लौंका के चेले कहते - "जब धर्म दया में है तो हिंसा को छोड़ों और दया पालो" अनपढ़ लोग, लौंका के अनपढ अनुयायियों की इस प्रकार की बातों से भ्रमित ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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