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________________ ४७६ ] [ पट्टावली-पराग फिर कदर होने लगी । बनारस, मेसाणा आदि स्थानों में संस्कृत पाठशालाएं स्थापित हुई और उनमें गृहस्थ विद्यार्थी पढ़कर विद्वान् हुए कतिपय उनमें से साधु भी हुए, तब कई साधु स्वतंत्र रूप से पण्डितों के पास पढ़कर व्युत्पन्न हुए, इस नये संस्कृत प्रचार से प्रमूर्तिपूजक सम्प्रदाय को एक नई चिंता उत्पन्न हुई, वह यह कि सम्प्रदाय में से पहले अनेक पठित साधु चले गये तो अब न जायेंगे, इसका क्या भरोसा ? इस चिंता के वश होकर सम्प्रदाय के अमुक साधुओं ने अपने मान्य सिद्धान्तों पर नई संस्कृत टीकाएँ बनवाना शुरू किया। अहमदाबाद शाहपुर के स्थानक में रहते हुए स्थानकवासी साधु श्री घीसीलालजी लगभग ७-८ साल से यही काम करवा रहे हैं, संस्कृतज्ञ ब्राह्मण विद्वानों द्वारा आगमों पर अपने मतानुसार संस्कृत टीकाएँ तैयार करवाते हैं, साथ-साथ उनका गुजराती तथा हिन्दी भाषा में भाषान्तर करवा कर छपवाने का कार्य भी करवा रहे हैं। इस प्रकार की नई टीकाओं के साथ कतिपय सूत्र छप भी चुके हैं । टीकाकार के रूप में उन पर अमुक प्रसिद्ध साधुओं के नाम अंकित किये जाते हैं। उपर्युक्त व्यवस्था चालू हुई तभी से श्री फूलचन्दजी ने सबसे आगे कदम उठाया, उन्होंने सोचा नई टीकानों के बनने पर भी संस्कृत के जान• कार साधु को प्राचीन मूर्तिपूजक सम्प्रदाय-मान्य टीकाओं को पढ़ने से कोन रोक सकेगा, इस वास्ते सबसे प्रथम कर्त्तव्य यही है कि आगमों में से तमाम मूर्तिपूजा के पाठ तथा उनके समर्थक शब्दों तक को हटा दिया जाय ताकि भविष्य में सूत्रों का वास्तविक अर्थ समझकर अपने सम्प्रदाय में से मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में साधुजों का जाना रुक जाय । अगर प्राचीन टीकाओं वाले आगमों में मूर्तिपूजा के अधिकार देखकर कोई यह शंका करेंगे कि मूर्तिपूजक सम्प्रदाय-मान्य भागमों में तो प्रतिमापूजा के अधिकार विद्यमान है और अपने आगमों में नहीं इसका क्या कारण है, तो उन्हें कह दिया जायगा कि मूर्तिपूजा के पाठ चैत्यवासी यतियों ने आगमों में घुसेड़ दिये थे उनको हटाकर आगमों को संशोधित किया गया है । __स्थानकवासी सम्प्रदाय के साधुओं में व्याकरण को "व्याधिकरण" कहने की जो पुरानी परम्परा थी वह सचमुच ठीक ही थी, क्योंकि उनमें से ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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