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________________ ३६० ] [ पट्टावली-पराग ख्यान में वह साधुयों का प्राचार सुनता, परन्तु उस समय के साधुनों में शास्त्रोक्त - प्राचार पालन न देखकर उनको पूछता - आप कहते तो सही है परन्तु चलते उससे विरुद्ध हैं, यह क्या ? लौंका के इस प्रश्न पर यति उसको कहते - धर्म तो हमसे ही रहता है, तुम इसका मर्म क्या जानो । तुम पांच ग्रश्रवसेवतो हो और साधुनों को सिखामन देने निकले हो । ५६ । ७८ ।" "यति के उक्त कथन पर शाह लौंका ने कहा- शास्त्र में तो दया को धर्म कहा है, पर तुम तो हिंसा का उपदेश देकर धर्म की स्थापना करते हो ? इस पर यति ने कहा - फिट् भोण्डे ! हिंसा कहां देखी ? यति के समान कोई दया पालने वाला है ही नहीं । लौंका ने यति के उत्तर को अपना अपमान माना और साधुत्रों के पास पौधशाला जाने का त्याग किया | स्थान-स्थान वह दया-धर्म का उपदेश देता, और कहता - ग्राज ही हमने सच्चा धर्म पाया है । दूकान पर बैठा हुआ भी वह लोगों को दया का उपदेश दिया करता, जिसे सुनकर यति लोग उसके साथ क्लेश किया करते थे, पर लौंका अपनी धुन से पीछे नहीं हटा । फलस्वरूप संघ के कुछ लोग भो उसके पक्ष में मिले, बाद में शाह लौंका अपने वतन लींबड़ी गया, लींबड़ी में लौका को फूकी का बेटा लखमसी कारभारी था, उसने लौंका का साथ दिया और कहा - हमारे राज्य में तुम धर्म का उपदेश करो । दया-धर्म ही सब धर्मो में खरा धर्म है | |१० ११ १२ " "शाह लौका और लखमसी के उद्योग से बहुत लोग दया-धर्मी बने । इतने में लौंका को भारणा का संयोग मिला । लौंका बुढ्ढा होने प्राया था, इसलिए उसने दीक्षा नहीं ली, परतु भारगा ने साधु का वेष ग्रहण किया और जिसका शाह लौंका ने प्रकाश किया था उस दया-धर्म की ज्योति भाणा ने सर्वत्र फैलायी । शाह लौंका संवत् १५३२ में स्वर्गवासी हुए |१३|१४| " दया-धर्म जयवन्त है, परन्तु कुमति इसकी निन्दा और बुराइयां करते हैं, कहते हैं - 'लौंका साधुनों को मानने का निषेध करता है, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, जिनपूजा और दान को नहीं मानता।' परन्तु हे Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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