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________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ३८९ के सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित रूप से अभिप्राय व्यक्त करना साहस मात्र ही माना जायगा । लौकाशाह और इनका मन्तव्य : लौंकाशाह का अपना खास मन्तव्य क्या था, इसको इसके अनुयायी भी नहीं जानते । लौंका को मौलिक मान्यताओं का प्रकाश उनके समीपकालवर्ती लेखकों की कृतियों से ही हो सकता है, इसलिए पहले हम लौंका के अनुयायी तथा उनके विरोधी लेखकों को कृतियों के माधार से उनके मत का स्पष्टीकरण करेंगे । लौकागच्छीय यति श्री भानुचन्द्रजी कृत "याधर्म चौपाई' के अनुसार लौंका के मत की हकीकत - यति भानुचन्द्रजी कहते हैं - "भस्मग्रह के अपार रोष से जैनधर्म अन्धकारावृत हो गया था । भगवान् महावीर का निर्वाण होने के बाद दो हजार वर्षों में जो जो बरतारे बरते उनके सम्बन्ध में हम कुछ नहीं कहेंगे, जब से शाह लौंका ने धर्म पर प्रकाश डाला और दयाधर्म की ज्योति प्रकट हुई है उसके बाद का कुछ वर्णन करेंगे ।१।२।" "सौगष्ट्र देश के लींबड़ी गांव में डुङ्गर नामक दशा श्रीमाली गृहस्थ बसता था। उसकी स्त्री का नाम था चूड़ा। चूड़ा बड़े उदार दिल की स्त्री थी, उसने संवत् १४८२ के वैशाख वदि १४ को एक पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम दिया लौका। लौंका जब पाठ वर्ष का हना तब उसका पिता शा. ड्रगर परलोकवासी हो गया था ।३.४।" 'लौंका की फूफी का बेटा लखमसी नामक गृहस्थ था, जिसने लौका का धनमाल अपने कब्जे में रखा था। लौंका की उम्र १६ वर्ष की हुई तब उसकी माता भी स्वर्ग सिधार गई। लौंका लीम्बड़ी छोड़कर अहमदाबाद आया और वहां नाणावट का व्यापार करने लगा। हमेशा वह धर्म सुनने और पौषधशाला में जाता और त्रिकाल-पूजा, सामायिक करता, व्या Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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