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________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ७१ प्रदेश को भी अजीव ही मानना पड़ेगा। क्योंकि अन्य प्रदेशों से इसका कोई भेद नहीं है अथवा प्रथमादि प्रत्येक प्रदेश को जोव मानना पड़ेगा, इत्यादि अनेक युक्तियों से प्राचार्य ने तिष्यगुप्त को समझाया, फिर भी उसने अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ा। तब गुरु ने उसे अपने समुदाय से पृथक कर दिया, फिर भी वह अनेक प्रकार की प्रसत्कल्पनाओं से अपने अभिनिवेश को पुष्ट करता और लोगों को ब्युद्ग्राहित करता हुआ कालान्तर में 'पामलकल्पा' नगगे गया। वहां अम्बशाल वन में ठहरा। आमलकल्पा में “मित्रश्री" नामक एक श्रमणोपासक रहता था। वह जानता था कि "तिष्यगुप्त" प्रदेशवादी है, उसने तिष्यगुप्त को निमन्त्रण दिया कि माप स्वयं मेरे घर पधारियेगा। तिष्यगुप्त कुछ साघुत्रों के साथ गया। मित्रश्री ने उसे आसन पर बिठाया और बैठने पर अनेक प्रकार के खाद्य पकवान वहां लाये । प्रत्येक पदार्थ में से थोड़ा-थोड़ा टुकड़ा पात्र में रखा, भात में से चावल का एक दाना, दाल शाक में से एक-एक बूंद । इसी प्रकार बस्त्र का मन्तिम धागा उसको देकर पैरों में सिर नवाया और अपने मनुष्यों को कहा : प्रायो, वादन करो, साधु महाराज को दान दिया है। माज में पुण्यवान् तथा भाग्यशाली हुमा जो माप स्वयं मेरे घर पाए । तब साधु बोले : हे महानुभाव ! क्या तुम आज हमारा ठट्ठा कर रहे हो ? श्रावक ने कहा : मैंने मापके सिद्धान्तानुसार मापको दान दिया है, यदि पाप कहें तो वधमान स्वामी के सिद्धान्त से दान हूँ? यहां पर "तिष्यगुप्त" समझा और बोला : आर्य, तुमने बहुत अच्छी प्रेरणा की, बाद में श्रावक ने विधिपूर्वक अन्नवस्त्रादि का दान दिया भोर अन्त में मिथ्यादुष्कृत दिया। उक्त रीति से तिष्यगुप्त' और उनके शिष्य ठिकाने पाये शोर अपनी भूल का प्रायश्चित्त कर विचरने लगे। ऊपर लिखे बहुरत जमालि और प्रदेशवादी तिष्यगुप्त इन दोनों ने भगवान् महावीर की नीवित अवस्था में ही उनके सिद्धान्त से अमुक विषयों में अपना नया मत प्रचलित किया था। इनमें से तिष्यगुप्त और उनके शिष्य कालान्तर में अपना मत छोड़कर महावीर के सिद्धान्त से अनुकूल हो Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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