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[ पट्टावली-पराग
हरिवालो के अंकुर निकल जाने से प्रयतना बहुत दीख रही है वास्ते अभी ठहरो ! इस पर द्रव्यलिंगी गुरु बोले - शाहजी धर्म के निमित्त होने वाली हिंसा को हिंसा नहीं माना, यह सुनकर संघवी ने सोचा कि लौंका महेता के पास जो सुना था कि वेशवारी साधु अनाचारी हैं, छः काय की दया से हीन हैं, वह बात माज प्रत्यक्ष दीख रही है, द्रव्यलिंगी यति वापस लौट गया और संघ के साथ सिद्धान्त सुनता वहीं ठहरा, सुनते-सुनते उनमें से ४५ जनों को वैराग्य उत्पन्न हुआ और संयम लिया, उनके नाम - सर्वोजी, भारगोजी, नयनोजा, जगमोजी नादि थे, इस प्रकार ४५ साधु जिनमाग के दयाधर्म की प्ररूपणा करने लगे और अनेक जीवों ने दयाधर्म का स्वीकार किया, उस समय लोकाशाह ने पूछा तुम कैसे साधु कहलाते हो ? साधु बोले - महेताजी हमने तीर्थङ्कर का धर्ममार्ग आपसे पाया है, इसलिए हम " लौका साधु" कहलाते हैं और हमारा समुदाय "लौकागच्छ' कहलाता है ।
कल्पित कथा के प्रारंभ में "दशवैकालिक" के पांने दीमक रवाने की बात कही गई है । श्रौर " दशवैकालिक" की प्रति लौका को देने का कहा है. अब विचारणीय बात यह है कि पुस्तक के पाने दीमक द्वारा नष्ट हो गये तो उसी "दशवेकालिक" की प्रति के ऊपर से लौका ने दो प्रतियां कैसे लिखी ? क्योंकि लौका के पास तो पुस्तक भंडार था नहीं और लौंका को लिखने के लिए पुस्तक देने वाले यतिजी ने उसे " दशवेकालिक" की अखंडित प्रति देने का का सूचन तक नहीं है, केवल "दशवेकालिक" ही नहीं यतिजो के पास से दूसरे भी सूत्र लिखने के लिए aौंका ले जाता था और उनकी एक-एक नकल अपने लिए लिखता था । यदि भण्डार के तमाम सूत्रों में दीमक ने नुकशान किया था और यतिजी भंडार के पुस्तकों को लिखवाते थे तो साथ में प्रखड़ित सूत्रों की प्रतियां देने की आवश्यकता थी, परन्तु इस कहानी से ऐसी बात प्रमाणित नहीं होती अत: “लौकाशाह जिनमार्ग का काम समझकर सूत्रों की प्रतियां लिखते थे, यह कथन सत्यता से दूर है ।" सत्य बात तो यह है कि लौंकाशाह लेखक का धन्धा करता था । मेहनताना देकर साधु उससे पुस्तक लिखवाते थे,
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