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चतुर्थ-परिच्छेद ]
[ ४१७ उनमें से लौंका ने लिखवाने वाले को प्राज्ञा के बिना अपने लिए पुस्तक की एक-एक प्रति लिख ली हो तो असम्भव नहीं है, परन्तु एक बात विचारणीय यह है कि लौंका के समय में जैनसूत्रों पर टिब्बे नहीं बने थे। सूत्रों पर टिब्बे सर्वप्रथम पावचन्द्र उपाध्याय ने लिखे थे और पार्श्वचन्द्र का समय शाह लौका के बाद का है। लौंका "संस्कृत" या "प्राकृत" भाषा का जानकार भी नहीं था फिर उसने सूत्रों की नकल करते-करते मूल सूत्रों का अगर उसकी पंचांगी का तात्पर्य कैसे समझा कि सूत्रों में साधु का आचार ऐसा है और साधु उसके अनुसार नहीं चलते हैं। सच बात तो यह है कि वह साधुओं के व्याख्यान सुना करता था, इस कारण से वह साधुओं के प्राचारों से परिचित था। वृद्ध पौषधशालिक प्राचार्य श्री ज्ञानचन्द्रसूरि का पुस्तक-लेखन का कार्य लौंकाशाह कर रहा था और इस व्यवसाय को लेकर ही ज्ञानचन्द्रसूरि ने लौंका को फिटकारा और लौंका ने साधुनों के पास न जाने की प्रतिज्ञा की थी और उनके प्राचार-विचार के सम्बन्ध में टोका-टिप्पणियां करने लगा था।
लौंकामत को कल्पित कहानी में दी गई, हटवाणियां गांव के संघ की कहानी भी सरासर झूठो है। क्योंकि पहले तो 'हटवारिणया" नामक कोई गांव ही मारवाड़ अथवा गुजरात में नहीं है, दूसरा चातुर्मास्य आगे लेकर संघ निकालने की पद्धति जैनों में नहीं है, फिर लौंकाशाह के निकट पहुँचने के लगभग जलवृष्टि होना और वनस्पति के अंकुरों के उत्पन्न होने आदि की बातें केवल कल्पना-कल्पित हैं। विद्वान् साधुनों की विद्वत्तामयी धर्मदेशना सुनकर हजारों में से शायद ही कोई दीक्षा के लिये तैयार होता है। तब लौंकाशाह के उपदेश से केवल यांत्रिक-संघ में से ४५ जनों के दीक्षा लेने की बात सफेद झूठ नहीं तो और क्या हो सकती है। लौंकाशाह के थोड़े ही वर्षों के बाद होने वाले लौंका भानुचन्द्रजी ऋषि और लौका केशवजी ऋषि अपनी रचनाओं में लौंकाशाह के अन्तिम समय में केवल एक भाणजी की दीक्षा होने की बात लिखते हैं। तब बीसवीं शती का स्थानकवासी पट्टावलीकार ४५ जनों के दीक्षा की बात कहता है और लौकाशाह के द्वारा पुछवाता है कि "तुम कैसे साधु कहलाते हो ?" साधु
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