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________________ ४१८ ] [ पट्टावली- पराग कहते हैं कि - "हम लौंकागच्छ के साधु कहलाते हैं" यह क्या मामला है ? पट्टावलीकार के लेखानुसार लोकाशाह के स्वर्गवास के बाद २१ वें वर्ष में कागच्छ की उत्पत्ति होती है और ४५ साधु लोकाशाह के सामके कहते हैं- "हम लौंकाशांह के साधु कहलाते हैं" क्या यह अन्धेरगर्दी नहीं है ? लौकागच्छ को कहलाने वाली सभी स्थानकवासी पट्टावलियां इसी प्रकार के अज्ञान से भरी हुई हैं । न किसी में अपनी परम्परा का वास्तविक क्रम है न व्यवस्था, जिसको जो ठीक लगा वही लिख दिया, न किसी ने कालक्रम से सम्बन्ध रक्खा, न ऐतिहासिक घटनाओं की श्रृंखला से । पट्टावली-लेखक आगे लिखता उसके बाद रूपजी शाह पाटन का निवासी संयमी होकर निकला, वह "रूपजी ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह लौंकागच्छ का पहला पट्टधर हुआ ।" उसके बाद सूरत निवासी शाह जीवा ने रूपजी ऋषि के पास दीक्षा ली और जीवजी ऋषि बने । व्यवहार से हम इनको शुद्ध साधु जानते हैं । बाद में स्थानक दोष सेवन करने लगे । आहार की गवेषरणा से मुक्त हुए, वस्त्र पात्र की मर्यादा लोपी, तब सं० १७०६ में सूरत निवासी बहोरा वीरजी का दोहिता शा० लवजी जो पढ़ा-लिखा था, उसको वैराग्य उत्पन्न हुआ और संयम लेने के लिए अपने नाता वीरजी से श्राज्ञा मांगी। वीरजी ने कहा कागच्छ में दीक्षा ले तो प्राज्ञा दूं, लवजी ने सोचा अभी प्रसंग ऐसा ही है, एक बार दीक्षा ले हो लू यह पास दीक्षा ली। विचार कर लवजो ने लागच्छ के यति बजरंगजी के उनके पास सूत्र सिद्धान्त पढ़ा। कालान्तर में अपने गुरु से पूछा - सिद्धान्त में साधु का श्राचार जो लिखा है उस प्रकार प्राजकल क्यों नहीं पाला जाता ?, गुरु ने आजकल पांचवां आरा है । इस समय आगमोक्त आचार किस ―― www कहा प्रकार पल सकता है ?, शिष्य लवजी ने कहा - स्वामिन्! भगवन्त का मार्ग २१ हजार वर्ष तक चलने वाला है, सो लौंकागच्छ में से निकलो, आप मेरे और में प्रापका शिष्य । बजरंगजी ने कहा- मैं तो गच्छ से गुरु Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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