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________________ तृतीय-परिच्छेद ] - सं० १२४३ में खेटनगर में चातुर्मास्य किया। सं० १९४४ में श्री प्रणहिलपाटकी में इष्ट गोष्टी चल रही थी, तब 4. सा० अभयकुमार को भाण्डशालिक ने कहा - अभयकुमार ! तुम हमारे स्वजन हो, कोटिधन के मालिक हो, और राजमान्य हो इससे हमको क्या फायदा हुआ ? जो तुम हमारे गुरषों को श्री उज्जयन्त, शत्रुञ्जय प्रादि तीर्थो की यात्रा नहीं करते। भाण्डशालिक की इस प्रेरणा को सुनकर अभयकुमार बोला - भाण्डशालिक ! किसी प्रकार से निराश मत हो, सब ठीक करूंगा, यह कह कर वह महाराज भीमदेव के पास गया । १. बृहद् गुर्वावली में सोमचन्द्र मुनि के साथ अराहिल पाटन का नाम आया था। जिनवल्लभ गणि ने पाटन में वर्षों तक विधिधर्मका प्रचार किया, परन्तु पाटन के संघ द्वारा गुजरात भूमि की सीमा छोड़कर, वे मारवाड़, मेवाड़ की तरफ गये थे सो जीवन पर्यन्त गुजरात की सीमा में पग नहीं रक्खा, जिनदत्तसूरि ने भी आचार्य बनने के बाद मेवाड़, मारवाड़, सिन्ध की तरफ ही विहार किया। आचार्य देवभद्र ने उनको कुछ समय तक पाटन में न आने की सलाह दी थी, तब जिनदत्त ने तीन वर्ष तक गुजरात की तरफ न आने की प्रतिज्ञा करके चित्तौड से विहार किया था। परन्तु जहां तक हमने इनके जीवन का अध्ययन किया है, जिनदत्तसरि ने आचार्य होने के बाद गुजरात और पाटन की तरफ प्रयाग नहीं किया। __ अंचलगच्छ की शतपदी नामक सामाचारी के कथनानुसार जिनदत्त एक बार पाटन आये थे, परन्तु उनको रात्रि के समय वाहन द्वारा मारवाड़ की तरफ भाग जाना पड़ा था। जिनदत्त के पट्टधर मणिधारी जिनचन्द्रसूरि मारवाड़ तथा उत्तर भारत में ही विचरे थे, गुजरात की तरफ कभी विहार तहीं किया था । जिनचन्द्र के पट्टधर जिनपतिसूरि सं० १२२३ में पट्टप्रतिष्ठित हुए थे, परन्तु सं० १२४३ तक उन्होंने पाटन में पग नहीं रवखा था। यद्यपि विधि-धर्म के अनुयायी अन्य साधु वहां आते जाते और रहते थे परन्तु गच्छ का मुख्य प्राचार्य पाटन में नहीं आता था। जिनवल्लभगणि पाटन में अपमानित होकर गए थे, इसलिए उनका वहां न आना सकारण था, परन्तु जिनदत्तसूरि जिनदत्त के शिष्य जिनचन्द्र और उनके पट्टधर जिनपतिसूरि का पाटन में न आना एक रहस्यमयी समस्या है, जिसका आजकाल के खरतरगच्छीय विद्वानों को पता तक नहीं है, प्रस्तुत गुर्वावली और बारहवीं शती के अन्यान्य ग्रन्थों से हमको पता लगा है कि जिनदत्तसूरि के उत्तेजक और लडाके उपदेशों को शान्तिभंग करने वाले बताकर जिनदत्तसूरि का पाटन ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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